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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
पवादिआणि < प्रवादितानि (पृ. १३०), पादवसंघरिस - समुट्ठिओ < पादपसंघर्ष - समुत्थित: (पृ. १६१), पिप्पलादेण< पिप्पलादेन (पृ. १५२), कयपादसोओ < कृतपादशौच : (पृ. २०५); पादवसंकुलो< पादपसङ्कल: (पृ. १७२), पीणुण्णयहारहसिरहितयहरसंहितपयोहरा < पीनोन्नतहारहासशीलहृदयहरसंहितपयोधरा (पृ.१२३); कतलीखंभसन्निभोरु < कदलीस्कम्भ(स्तम्भ) - सन्निभोरु (पृ.१२३); विविधसत्थविसारतो< विविधशास्त्रविशारदः (पृ.२५५); धणतोवमानं < धनदोपमानं (पृ. २१८); चोदेहि< चोदय (पृ.२०७); कविलातीहिं< कपिलादिभि: (पृ.२०६) आदि-आदि। इस सन्दर्भ से यह बात अधिक स्पष्ट होती है कि 'वसुदेवहिण्डी' की भाषिक प्रवृत्ति में अर्द्धमागधी के तत्सम-प्रयोग की सहज प्रवृत्ति का बाहुल्य है ।
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६. 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में अर्द्धमागधी की भाँति प के स्थान पर व की सहज प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । कतिपय उदाहरण :
कूवो < कूप: (पृ. ८), उवगारं < उपकारं (पृ. १४); खवियं < क्षपितं (पृ. १७); पिउसमावे पितृसमीपे (पृ.१८), उवायपुव्वं < उपायपूर्वं (पृ. २१), दससागरोवम < दशसागरोपम (पृ. २५), जणवओ< जनपदः (पृ.२९); उवणिज्जउ< उपनयतु (पृ.२९), सद्दाविओ < शब्दापित: (पृ.३३), भोयणमंडवे < भोजनमण्डपे (पृ. ३३), काहावणेणं < कार्षापणेन (पृ.५७); लवियं - लपितं (पृ.६६), पावजणावासकम्पनिलए< पापजनावासकर्मनिलये (पृ.७५); रूवस्सिणी < रूपवती (पृ.७८), तवस्सी < तपस्वी (पृ. १०१), ण्हाविओ< स्नापित: (पृ.१०७), वाविं< वापीं (पृ.१२३); वीणावावारो < वीणाव्यापारः (पृ. १३२), पायवं पादपं (पृ. १३५), अहमवि < अहमपि (पृ. १४७); रिवुदमनो< रिपुदमन: (पृ.५९); तावसा< तापसाः (पृ.१६३), पडिमापडिवण्णो < प्रतिमाप्रतिपन्नः (पृ.१७७); दीवमणिपगासियं < दीपमणिप्रकाशितं (पृ.१७८), कोवपसायणोवायचिंतापरो < कोपप्रसादनोपायचिन्तापर: (पृ. १७८), विवागकहा < विपाककथा (पृ. २१९), रूवसिरी < रूपश्री: (पृ.२३३); उववण्णो< उपपन्न: (पृ.२३५); ठवेइ< स्थापयति (पृ. २३९); समणोवासओ < श्रमणोपासकः (पृ.२४); कुवियाणणा < कुपितानना (पृ.२४१), वेविरकोवणा < वेपिरकोपना (पृ. २४७), पावाए < पापया (पृ.२५०); दयावरो< दयापरः (पृ. २६१), मरुप्पवाया < मरुत्प्रपाता: (पृ. २६६), निरुवलेवेण निरुपलेपेन (पृ.२६६), महुरपलाविणो - मधुरप्रलापिन: (पृ. २६९), तवोकम्मेण < तपः कर्मणा (पृ.२७४), पयावइस्स< प्रजापते: (पृ.२७६); तिविट्टू < त्रिपृष्ठ: (पृ.२७६), विणिवायं विनिपातं (पृ.३२८); अरिंजयपुराहिवेण< अरिंजयपुराधिपेन (पृ. ३६५), कवटमरण - कपटमरण (पृ. ३६६), नंदगोवगोट्ठे < नन्दगोपगोष्ठे (पृ. ३७०), उवज्झायो < उपाध्याय: (पृ.३७०) आदि-आदि। कहना न होगा कि पके व में परिवर्तन की प्रवृत्ति वसुदेवहिण्डी की भाषा में आद्यन्त दृष्टिगत होती है। साथ ही, प की यथास्थिति भी बहुलता से उपलब्ध होती है ।
७. 'वसुदेवहिण्डी' की भाषिक प्रवृत्ति में स्वरमध्यवर्ती 'य' की यथास्थिति मिलती है, किन्तु 'य' का 'त' भी अपनी विकृति के साथ अनेकत्र प्रयुक्त है। उदाहरणस्वरूप' कतिपय प्रयोग द्रष्टव्य है :
(क) जिब्मिदिय< जिह्वेन्द्रिय (पृ. ६),
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विणयपणओ< विनयप्रणतः (पृ.७), पलायमाणेण< पलायमानेन (पृ.८), हिययगहण < हृदयग्रहण (पृ.१३); पायसं < पायसं (पृ.२२), रूवातिसयं < रूपातिशयं (पृ.३८), सयणिज्जं < शयनीयं (पृ.४१), पयागं- प्रयागं (पृ.४३), विपलातो ( विपलायो अथवा य - श्रुतिरहित विपलाओ ) < विपलायितः (पृ.४४), वायामकढिणगत्तो < व्यायामकठिनगात्र: (पृ. ४५), 'आहाइतो (आहाइओ-यो) < आधावित: (पृ.४५), सोयपुण्णहियतो < शोकपूर्णहृदय: (पृ.४७), ठितो