________________
वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४९३
दुहराई’: ‘आपका प्रकृति-पुरुषविषयक चिन्तन किस प्रकार का है ?' परिव्राजक कहने लगा: पुरुष चेतन है, नित्य, निष्क्रिय, भोक्ता और निर्गुण है। शरीर के आश्रय से वह बन्धन में पड़ता है और ज्ञान से उसका मोक्ष होता है । प्रकृति अचेतन, गुणवती (सत्त्व, रज, तम से युक्त), सक्रिय और पुरुष का उपकार करनेवाली है।'
वसुदेव ने अपनी जिज्ञासा आगे बढ़ाई: 'इस प्रकार का चिन्तन कौन करता है ?' वृद्ध परिव्राजक ने कहा : 'मन, जो प्रकृति का विकार है।' वसुदेव ने अपनी जैन दृष्टि उपस्थित करते हुए कहा : " अगर आपको आपत्ति न हो, तो इस सन्दर्भ में विचार की अपेक्षा है । सुनें : पुरुष अथवा प्रकृति को आश्रित करके अचेतन मन के द्वारा चिन्तन सम्भव नहीं है। पुरुष में रहनेवाली चेतना निष्क्रिय (असम्भरणशील) होने के कारण मन को प्रभावित करने में असमर्थ है। यदि चेतना मन को प्रभावित करनेवाली हो जायेगी, तब तो मन ही पुरुष हो जायेगा । परन्तु ऐसा होता नहीं है । अनादिकाल से विद्यमान अपरिणामी (नित्य) पुरुष को यदि चिन्ता उत्पन्न होगी, तो पूर्वभाव के परित्याग और उत्तरभाव के ग्रहण-रूप भावान्तर को प्राप्त करके वह अनित्यत्व की स्थिति में पहुँच जायगा । यदि ऐसा (पुरुष का अनित्यत्व) सिद्ध हो जायगा, तो आपके सिद्धान्त (पुरुष नित्य और अपरिणामी है) में विरोध पड़ेगा। मन की चिन्तनधर्मिता को आश्रित करके जिस प्रकार आपने विचार किया, उसे आप प्रकृति के सम्बन्ध में भी जानें। (क्योंकि, आपने कहा है कि मन प्रकृति का विकार है ।) यह देखने में आता है कि अचेतन घट आदि पदार्थों में पुरुष अथवा प्रकृति प्रति अथवा दोनों के प्रति चिन्तन की क्रिया घटित नहीं होती ।"
इसपर अपना सांख्यमतोक्त तर्क उपस्थित करते हुए परिव्राजक ने कहा: “प्रकृति-पुरुष के संयोग होने पर यह सब सम्भव है। प्रकृति और पुरुष, दोनों के एकाकी रहने की स्थिति में, दोनों की, नियतपरिणामिता के कारण, परस्पर क्रियाकारित्व में असमर्थता रहती है। प्रकृति अचेतन है और पुरुष सचेतन। इन दोनों के संयुक्त होने पर, सारथी और अश्व के सामर्थ्य-संयोग से रथ की गति की भाँति चेतना उत्पन्न होती है ।" "
वसुदेव ने पुनः अपना तर्क उपस्थित किया : “जो परिणामी द्रव्य है, उनमें यह विशेषता (क्रियाधर्मिता) सहज ही सम्भव है । जिस प्रकार, आकुंचन ( जामन) और दूध के संयोग से दही का परिणमन होता है। और फिर, आपने जो सारथी तथा घोड़े के संयोग से रथ की गति की बात कही है, वह चेतना-प्रेरित प्रयत्न का परिणाम है, अर्थात् आत्मा या पुरुष में भी चेतना की प्रेरणा से ही क्रियाशक्ति उत्पन्न होती है, अतः पुरुष सचेतन होने के साथ ही सक्रिय भी है।
अपने सांख्यमत को पल्लवित करते हुए वृद्ध परिव्राजक ने कहा : 'अन्ध और पंगु (अन्धे और लँगड़े) के संयोग से इच्छित स्थान में गति के समान, ध्यान करनेवाले पुरुष में (प्रकृति के विकार मन के संयोग से) चेतना उत्पन्न होती है ।'
उक्त सांख्यमत का उपसंहार करते हुए वसुदेव ने जैन दृष्टि उपस्थित की : " लँगड़े और अन्धे दोनों सक्रिय, अथवा सचेतन हैं (जिसकी चर्चा आपने भी की है) । चेतना परिस्पन्दलक्षणात्मक १. बुधस्वामी ने 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' (१८.३२८) में इसी सांख्यमतोक्त सैद्धान्तिक तथ्य को 'नष्टाश्वदग्धरथ' के उदाहरण या दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है। दो रथी थे, जिनमें एक का घोड़ा मर गया और दूसरे का रथ जल गया। ऐसी स्थिति में दोनों के सहयोग (एक के रथ से दूसरे के घोड़े को जोड़ने) से पुनः रथ तैयार हो गया और फिर दोनों की यात्रा सम्भव हुई (नष्टाश्वदग्धरथक्योगः श्लाघ्योऽयमावयो:' ) ।
.