SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा इस प्रकार, कथाकार संघदासगणी ने अपनी महत्कृति 'वसुदेवहिण्डी' में यथाप्रसंग नास्तिकवादी धारणा की आलोचना उपस्थित करते हुए अनेकान्तवादी जैन धारणा का पक्ष - समर्थन किया है। चौथे नीलयशालम्भ (पृ. १६९) में कथाकार ने नास्तिकवादी सिद्धान्त के स्वरूप का निरूपण करते हुए नास्तिकवादिता के कारण होनेवाली जघन्य मृत्यु की कथा का उल्लेख किया है। गन्धार-जनपद के गन्धिलावती विजय की राजपरम्परा में कुरुचन्द्र नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम कुरुमती और पुत्र का नाम हरिश्चन्द्र था । राजा नास्तिकवादी था। उसकी धारणा थी : इन्द्रियों के समाहार से ही पुरुष की रचना होती है, जिस प्रकार मद्य के अंगभूत पदार्थों के मिलने से मद की उत्पत्ति होती है। एक भव से दूसरे भव में संक्रमण भी नहीं होता है । देवों और नारकियों में कोई भी सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं भोगता । इसी सिद्धान्त के आधार पर उसने अनेक जीवों का वध करना प्रारम्भ किया । छुरे की पैनी धार की तरह क्रूर वह राजा शीलरहित और व्रतविहीन था । जीव- वध करते हुए उसके बहुत वर्ष बीत गये । मृत्यु के समय असातावेदनीय (दुःख के कारणभूत कर्म) की बहुलता से नरक -गति के अनुरूप पुद्गल - परिणाम हुआ, फलतः दर्शनमोहनीयवश उसे आप्त में अनाप्त तथा पदार्थ में अपदार्थ बुद्धि का उदय हो आया— • श्रुतिमधुर गीत को वह आक्रोश (चीख-चिल्लाहट) समझने लगा । मनोहर रूप भी विकृत दिखाई पड़ने लगे। दूध और शक्कर में उसे बदबू आने लगी । चन्दन का लेप गोइठे के अंगारे जैसा लगता । हंस के रोए की तरह मुलायम रुई के बिछावन काँटों की झाड़ी के समान मालूम होते । राजा के इस विपरीत भाव को जानकर रानी कुरुमती और पुत्र हरिश्चन्द्र उसकी प्रच्छन्न परिचर्या में लग गये । अन्त में, परम दुःखी राजा कुरुचन्द्र तड़प-तड़पकर मर गया। इस प्रकार, जैनों के कर्मसिद्धान्त के अनुसार, राजा को स्वकृत दुष्कर्म का फल भोगना पड़ा । ४८८ कथाकार ने आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता या देहपरिमाण - आत्मवाद की जैन धारणा को भी कथा में निबद्ध किया है। चमरी मृग के भव में स्थित श्रीभूति का शरीर जंगली आग से झुलस जाने के कारण वह मरकर वैरानुबन्ध-जनित जन्म-परम्परा में कुक्कुटसर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। बीच जंगल में पहुँचने पर उस सर्प की दृष्टि हाथी (पूर्वभव का वैरी सिंहसेन) पर पड़ी। रुष्ट होकर साँप ने हाथी को काट खाया। जब विष पूरा चढ़ गया, तब हाथी नमस्कार-मन्त्र जपने लगा और सोचने लगा: 'यही उत्तम समय है, मेरा शरीर मुझसे भिन्न है और मैं शरीर से भिन्न हूँ । इस प्रकार, प्रशस्त ध्यान में अवस्थित हाथी मृत्यु को प्राप्त कर महाशुक्र कल्प के श्रीतिलक विमान में सत्रह सागरोपम कालावधि तक लिए देव हो गया (बालचन्द्रालम्भ: पृ. २५७) । यहाँ कथाकार ने आत्मा का रूपान्तरण प्रदर्शित करके उसे 'स्वतन्त्र सत्' के रूप में उपन्यस्त किया है। कथाकार ने कथा माध्यम से जैनों के पुनर्जन्मवाद और परलोकसिद्धि के विविध प्रसंग उपवर्णित किये हैं । पुनर्जन्म और परलोक-गमन के सन्दर्भ में, 'राजवार्त्तिक' आदि जैनशास्त्रों में 'मरणान्तिक समुद्घात' नामक क्रिया का वर्णन किया गया है। इस क्रिया में, मरणकाल के पहले आत्मा के कुछ प्रदेश अपने वर्तमान शरीर को छोड़कर भी बाहर निकलते हैं और अपने आगामी जन्म के योग्य क्षेत्र का स्पर्श कर वापस आ जाते हैं। आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म-शरीर भी जाता है। जब कोई प्राणी अपने पूर्व शरीर को छोड़ता है, तब उसके जीवन-भर के विचारों, वचन - व्यवहारों और शरीर की क्रियाओं से जिस-जिस प्रकार के संस्कार आत्मा पर और आत्मा से चिरसंयुक्त कर्म- शरीर पर पड़े हुए होते हैं, अर्थात् कर्मशरीर के साथ संस्कारों के प्रतिनिधिभूत
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy