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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ४८९. पुद्गल द्रव्यों का, जिस प्रकार के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि परिणामों से युक्त होकर सम्बन्ध हुआ रहता है, कुछ उसी प्रकार के अनुकूल परिणामवाली परिस्थिति में आत्मा नूतन जन्म ग्रहण करता है। इसीलिए, जिसके जीवन में सदा धर्म और सदाचार की परम्परा सम्बद्ध होती है, उसके कर्मशरीर में प्रकाशमय, लघु और स्वच्छ परमाणुओं का प्राचुर्य रहता है और उसका गमन लघु होने के कारण स्वभावतः प्रकाशमय ऊर्ध्वलोक की ओर होता है। फिर जिसके जीवन में पापमूलक, तमोयुक्त गुरु परमाणुओं की बहुलता होती है, वह स्वभावतया नीचे तमोलोक की ओर जाता है। इसी तथ्य को सांख्य ने भी कहा है : 'धर्मेण गमनमचं गमनमधस्तात भवत्यधर्मेण' (सांख्यकारिका : ४४)।' __संघदासगणी ने नन्दिसेन की आत्मा के वसुदेव की आत्मा के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण करने के क्रम में 'मरणान्तिक समुद्घात' की क्रिया का निरूपण किया है। साधुओं की सेवावृत्ति के साथ श्रामण्य का अनुपालन करते हुए नन्दिसेन के पचपन हजार वर्ष बीत गये। मृत्यु के समय, उसे मामा की तीनों कन्याओं द्वारा दुर्भाग्यवश न चाहने की बात ध्यान में आ गई। उसने निदान (संकल्प) किया : 'तप, नियम और ब्रह्मचर्य के फलस्वरूप आगामी मनुष्य-भव में, मैं रूपसी स्त्रियों का प्रिय होऊँ।' यह कहकर वह मर गया और महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्रतुल्य देव हो गया और वही पुनः महाशुक्र से च्युत होकर परमरूपवान् वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुआ, जिनके रूप से स्त्रियाँ विमोहित हो जाती थीं (श्यामा-विजयालम्भ : पृ. ११८) । इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' 'मरणान्तिक समुद्घात' की क्रिया द्वारा पुनर्जन्म या आत्मा के नूतन शरीर धारण करने की प्रक्रिया से सम्बद्ध कथाओं से परिव्याप्त है। ____ पुनर्जन्मवादी, कथाकार ने पूर्वजन्मार्जित संस्कार, परलोक के अस्तित्व की सिद्धि और धर्म के फल की प्राप्ति के प्रति विश्वास उत्पन्न करनेवाली सुमित्रा की कथा को विशेष रूप से शीर्षीकृत किया है। इस कथा का संक्षेप यह है कि वाराणसी के राजा हतशत्रु की पुत्री सुमित्रा बचपन में एक दिन सोई हुई थी कि सहसा ‘णमो अरिहंताणं' कहती हुई जाग उठी। सेवा में नियुक्त दासियों ने उससे पूछा : 'अरिहन्त कौन हैं, जिन्हें आपने नमस्कार किया?' सुमित्रा ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। तब; भिक्षुणियों से पूछने पर उन्होंने बताया कि इस बालिका ने पूर्वभावना के संस्कारवश अरिहन्त को नमस्कार किया है । इसके बाद सुमित्रा जिन-मार्ग की अनुयायिनी और प्रवचन में कुशल हो गई। उसे परलोक के अस्तित्व और धर्मफल की प्राप्ति के प्रति जिज्ञासा हुई, जिसकी पूर्ति सुप्रभ नामक पण्डित पुरुष ने एक कथा के माध्यम से की। कथा है कि दो इभ्यपुत्रों में परस्पर बाजी लगी कि जो अकेला बाहर जाकर, बहुत धन अर्जित करके बारह वर्ष के पूर्व ही लौट आयगा, दूसरे को अपने मित्रों के साथ उसका दास होना पड़ेगा। शर्त के अनुसार, एक इभ्यपुत्र तो बाहर निकलकर जहाज के द्वारा समुद्रयात्रा करके अपना व्यापार बढ़ाने लगा, किन्तु दूसरा मित्रों से प्रेरित होने पर भी बाहर नहीं निकला। बारहवें वर्ष में, पहले वणिक्पुत्र के प्रचुर धन कमाकर विदेश से वापस लौटने का समाचार सुनकर दूसरा वणिक्पुत्र बड़ा चिन्तित हुआ और वह घर से निकला। एक वर्ष की शेष अवधि में कितना कमाया जा सकता है, यह सोचकर वह धन कमाने की अपेक्षा साधु के समीप दीक्षित हो गया और अतिशय विलष्ट तप:कर्म द्वारा नौ महीने के बाद मरण को प्राप्त कर सौधर्म स्वर्ग में देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। १. तुलनीय : यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ (गीता : ८.६)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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