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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४८७ ही है। यह सब केवल सुनने की वस्तु है।' इसपर अश्वग्रीव ने हरिश्मश्रु से पूछा : ‘हमें जो बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त है, वह तो अवश्य ही किसी पुण्यफल से अर्जित है। मैं सम्प्रति श्रमण, ब्राह्मण
और दीनजनों को दान देता हूँ तथा शील और काल को उद्दिष्ट कर तप करता हूँ, इससे मेरा परलोक सिद्ध होगा। तब, हिरश्मश्रु बोला : स्वामी ! कोई ऐसा जीव नहीं है, जिसके लिए परलोक में हित खोजा जाय। देह के भिन्न कोई जीव होता, तो जीस प्रकार पिंजरे से पंछी को बाहर निकलते देखा जाता है, उसी प्रकार देह के जीव को निकलते हुए देखा जाता। ऐसा जानिए कि पांच महाभूतों का, मनुष्य संज्ञा से कोई संयोग घटित होता है, इसी को लोग अज्ञानतावश जीव कहते हैं। जिस प्रकार दर्शनीय इन्द्रधनुष्य यदृच्छा (संयोग)-वश उत्पन्न होता है और फिर वही यदृच्छावश नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इस संसार में कोई ऐसी सारभूत वस्तु नहीं है, जो नष्ट होने पर परभव में संक्रमण करे । पंडितों (ज्ञानी पुरुषों ने न पाप का वर्णन किया है, न ही पुण्यफल का, इसी प्रकार न तो नरकभय और न देवलोक के सौख्य का ही वर्णन किया है। इसलिए, परलोक के (काल्पनिक) हेतु का परित्याग करें। परीक्षक की दृष्टि से यह विश्वास रखें कि देह से भिन्न जीव नहीं है। इस प्रकार, हिरश्मश्रु ने धर्मान्मुख अश्वग्रीव को देहात्मवादी नास्तिक धारणा के विषय में अनेक प्रकार से समझाया (पृ.२७५)।
कथाकार के संकेत से यह ज्ञात होता है कि हरिश्मश्रु की नास्तिकवादी अवधारणा का तत्कालीन राजकुलों पर व्यापक प्रभाव पड़ा था और उसी आधार पर राजे-महाराजे अपनी बेटियों से भी यौन सम्बन्ध की स्थापना में किसी प्रकार की हिचक का अनुभव नहीं करते थे। कथा है कि पोतनपुर के राजा दक्ष ने, अपनी पुत्री मृगावती के रूप-सौन्दर्य पर मोहित होकर, जब उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तब वह बोली : 'तात ! मुझे अपवचन कहना आपके लिए उचित नहीं है। क्या आप पाप से नहीं डरते? इस प्रकार सज्जनों द्वारा निन्दनीय वचन बोलना बन्द करें। आप न ऐसा बोलें और न मैं ऐसा सुनूं।' इस प्रकार पुत्री के इनकार करने पर राजा दक्ष ने हरिश्मश्रु के नास्तिकवादी सिद्धान्त का साक्ष्य उपस्थित करते हुए उससे कहा : 'तुम परमार्थ नहीं जानती हो। क्या तुमने महापण्डित हरिश्मश्रु द्वारा पूर्वकथित मत नहीं सुना? देह से भिन्न कोई जीव नहीं है, जो विद्वानों द्वारा वर्णित पुण्य या पाप का फल भोगे। इसलिए, पाप नाम की कोई वस्तु नहीं है।' अन्त में, मृगावती राजा के फुसलावे में आ गई और अपने पिता की ही अंकशायिनी बन गई (तत्रैव : पृ. २७६)। इस प्रकार, कथाकार ने नास्तिकवादियों के विकृत भोगवाद के असभ्योचित एवं सातिशय घृणित पक्ष का परदाफाश किया है। ____ कथाकार ने, पापाचारी नास्तिकों के दारुण दुःख भोगने के प्रसंग द्वारा नास्तिकवादी अवधारणा को त्याज्य सिद्ध किया है। हरिश्मश्रु को नास्तिकवाद के प्रचार के कारण, दर्शनमोहनीय (अनाप्त में आप्त या आप्त में अनाप्त बुद्धि तथा अपदार्थ में पदार्थ या पदार्थ में अपदार्थ बुद्धि का उदय) कर्म का संचय होने से दीर्घकाल तक दुःख-परम्परा का अनुभव करना पड़ा और असंख्य वर्षों तक अनेक तिर्यक् योनियों में भटकना पड़ा। इसलिए कि जैनों के देह-परिमाण-आत्मवादी सिद्धान्त के अनुसार हरिश्मश्रु का स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर भी कर्मशरीर बराबर उसके साथ लगा रहा। इसी प्रकार, हरिश्मश्रु के अनुयायी राजा अश्वग्रीव को भी, नास्तिकवादी मत के आचरण से संचित पाप के फलस्वरूप, तमतमा नाम की नरक की छठी भूमि में तैंतीस सागरोपम काल तक दुःख भोगना पड़ा और तिर्यक्; नारकीय एवं कुमनुष्य के भव से अनुबद्ध संसार में चक्कर काटना पड़ा (तत्रैव : पृ. २७८)।