________________
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति को बृहत्कथा 'बृहत्कथा' की शैली में की गई है । भारतीयेतर देशों में भी सहस्ररजनीचरित' ('अरेबियन नाइट्स टेल), 'अलिफ लैला की कथा', 'हातिमताई का किस्सा' अदि बृहत्कथाओं की परम्परा रहती आई है। आधुनिक हिन्दी में भी श्रीदेवकीनन्दन खत्री के ऐयारी या तिलिस्मवाले उपन्यास 'चन्द्राकान्ता' और 'चन्द्रकान्ता-सन्तति' बृहत्कथा का ही हिन्दी-नव्योद्भावन है । भले ही, इनके चरितनायक उदयन या नरवाहनदत्त के बदले कोई दूसरे ही क्यों न हों? 'बृहत्कथा' विराट् उपन्यास का ही नामान्तर है, जिसे गल्प की व्यापक श्रेणी में रखा जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि तमिल-साहित्य के इतिहास में, 'वसुदेवहिण्डी' के तमिल-रूपान्तर 'वसुदेवनार सिन्दम्' (वसुदेव, ‘नार' = का, 'सिन्दम्' = हिण्डन) का भी उल्लेख प्राप्त होता है। और फिर, कन्नड़-साहित्य के इतिहास से यह ज्ञात होता है कि राजा दुर्विनीत (सन् ६०० ई.) ने गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' का संस्कृत-रूपान्तर प्रस्तुत किया था, किन्तु दुर्भाग्यवश अब वह उपलब्ध नहीं होता। इस संक्षिप्त सूचना से यह स्पष्ट है कि 'बृहत्कथा' का प्राकृत-रूपान्तर 'वसुदेवहिण्डी' की हृदयावर्जक और लोकप्रिय कथा की व्यापकता उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से बनी हुई थी।
कहना न होगा कि प्राकृत-कथाग्रन्थ 'वसुदेवहिण्डी' में 'बृहत्कथा' की परम्परा का ही नव्योद्भावन हुआ है। निश्चय ही, 'वसुदेवहिण्डी' 'बृहत्कथा' नहीं है, किन्तु 'बृहत्कथा' की परम्परा में एक युग-परिवर्तक जैन नव्योद्भावन अवश्य है, जो 'बृहत्कथा' के प्राचीनतम रूपान्तर के साथ आधाराधेयभाव से जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थ में 'बृहत्कथा' की वस्तु को श्रीकृष्ण की प्राचीन कथा के आधार पर गुम्फित किया गया है। ग्रथन-कौशल से ही इस कथाकाव्य में नव्यता आ गई है। जैन वाङ्मय के सुपरिचित जर्मन अधीती श्रीयाकोबी के मतानुसार, जैनों में कृष्ण की कथा ईसवी-सन् से ३०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी। श्रीयाकोबी मानते हैं कि ई. सन् के प्रारम्भ तक जैनपुराण-कथा सम्पूर्णता की स्थिति में आ गई थी। जैनों ने जिस समय 'बृहत्कथा' को अपनी पुराण-कथा के कलेवर में सम्मिलित किया, उस समय वह एक सुप्रसिद्ध कवि की कृति होने के अतिरिक्त देवकथा की भव्यता से प्रभास्वर प्राचीनतर युग की रचना मानी जाने लगी थी, जिसकी महत्ता पुराणों एवं महाकाव्यों की कथा के समान हो गई थी। इसीलिए, 'बृहत्कथा' के
जैन नव्योद्भावन से मूल 'बृहत्कथा' के रचनाकाल की शतियों प्राचीनता को लक्ष्य कर बूलर ने गुणाढ्य का समय ईसवी-सन् की पहली या दूसरी शती और लाकोत ने तीसरी शती में माना है। इस सन्दर्भ में, ऑल्सडोर्फ का यह मत कि गुणाढ्य को यदि बहुत प्राचीन समय में नहीं, तो उसे ईसवी-सन् की पहली या दूसरी शती के पूर्वार्द्ध में मानना चाहिए, अमान्य नहीं है। ___डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का यह कथन सर्वथा यथार्थ है कि गुणात्म की 'बृहत्कथा' अपने युग में व्यास-कृत 'महाभारत' के समान अपने देश के काव्य और कथा साहित्य पर छाई हुई थी, जो आज, काल के विशाल अन्तराल में जाने कहाँ विलीन हो गई है ! इसलिए, उसके उत्तरकालीन रूपान्तरों, वाचनाओं या नव्योद्भावनों से ही अनुमान की कुछ कड़ियाँ जोड़नी पड़ती हैं।
प्रो. लाकोत ने विलुप्त बृहत्कथा' की आयोजना का अनुमान सम्भवतः ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के आधार पर इस प्रकार किया है : प्रास्ताविक भाग में उदयन और उसकी रानी वासवदत्ता एवं १. द्र. हिस्ट्री ऑव तमिल लिट्रेचर' : एस. वी. पिल्लई, मद्रास, सन् १९५६ ई. २. कन्नड़-साहित्य का इतिहास : आर. नरसी वांचा.वेल्लर