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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन यदु के वंश में शौरि और वीर राजा हुए। शौरि ने शौरिपुर या शौर्यपुर बसाया और वीर ने सौवीर नगर की स्थापना की। राजा शौरि के दो पुत्र हुए : अन्धकवृष्णि और भोजवृष्णि । अन्धकवृष्णि के दस पुत्र हुए : समुद्रविजय (वसुदेव के सबसे बड़े भाई), अक्षोभ, स्तिमितसागर, हिमवन्त, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव। ये दस दशाह कहलाये। दो पुत्रियाँ भी
अन्धकवृष्णि के हुई–कुन्ती और माद्री। भोजवृष्णि के पुत्र का नाम उग्रसेन हुआ। इस प्रकार, हरिवंश का विस्तारोल्लेख कथाकार ने विशद रूप से किया है।
मथुरा शूरसेन-जनपद की राजधानी थी। वहाँ के सुदित सन्निवेश में ब्राह्मणों की आबादी थी । कंस ने शूरसेन देश पर वसुदेव के अधिकार को स्वीकार कर स्वयं उनका आरक्षी-मात्र बने रहने की आश्वस्ति दी थी। एक बार कंस वसुदेव को अतिशय सम्मान के साथ मथुरा ले गया था और वसुदेव वहाँ कुछ दिनों तक रहे थे। कंस की अनुमति (राय) से ही वसुदेव ने मृत्तिकावती के राजा देवक की पुत्री देवकी से विवाह किया था। यहाँ कथाकार ने कंस द्वारा वसुदेव के सात पुत्र माँगकर उन नवजात शिशुओं को मार डालने की मनोरंजक प्रबन्ध-कल्पना की है।
इस प्रकार, कथाकार द्वारा उपस्थापित दस भारतीय महाजनपदों का वर्णन ऐतिहासिकों एवं राजनीति के पर्यवेक्षकों के लिए अनेक अभिनव आयामों का उद्भावन करता है। इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' के ऐतिहासिक एवं राजनीतिक दृष्टि से स्वतन्त्र मूल्यांकन की महत्ता शोध-अध्येताओं की प्रतीक्षा कर रही है। ___ कथाकार ने पूर्ववर्णित दस महाजनपदों के अतिरिक्त निम्ननिर्दिष्ट जनपदों का भी विशद और प्रामाणिक उल्लेख किया है :
प्राचीन जनपदों में आनर्त, कुशार्थ (कुशावर्त), सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) और शुकराष्ट्र का भी उल्लेखनीय महत्त्व था। ये चारों जनपद पश्चिम समुद्र (हिन्द महासागर) से संश्रित थे। कथाकार ने द्वारवती नगरी को इन चारों जनपदों की अलंकारभूता कहा है। यह भी विनीता नगरी की भाँति नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी। इसके परकोटे सोने के थे। इसे भी कुबेर ने अपनी वास्तुक मति से निर्मित किया था। लवणसमुद्र के बीच में बनी इस नगरी में जाने-आने के लिए 'सुस्थित' संज्ञक लवणाधिप देव रास्ता बनाते थे । यहाँ रत्न की वर्षा होने से कोई भी व्यक्ति दरिद्र नहीं था। रलों की प्रभा से यहाँ निरन्तर प्रकाश फैला रहता था। देवभवन के प्रतिरूप प्रासादों से मण्डित यह नगरी विशिष्ट चक्राकार भूमि पर बनी थी। इस नगरी के नागरिक विनीत, विज्ञानी, मधुरभाषी, दानवीर, दयालु, शीलवान्, सज्जन एवं सुन्दर वेशभूषा से अलंकृत थे। इसी नगरी के बाहर रैवतक पर्वत था। इस पर्वत के गगनचुम्बी शिखर रत्न की कान्ति से जगमगाते रहते थे। हरिवंश-कुल के प्रसिद्ध दस दशाई धर्म के दस भेद की तरह इसी द्वारवती नगरी में रहते थे।
चारुदत्त की यात्राकथा में जनपद के रूप में वर्णित खस, चीन, हूण, बर्बर, यवन, टंकण, उत्कल आदि का केवल नामतः उल्लेख हुआ है। सौराष्ट्र-जनपद का गिरिनगर सार्थवाहों के लिए व्यापार-केन्द्र था। उस समय सौराष्ट्र देश के प्रभासतीर्थ की बड़ी भारी महिमा थी। शाम्ब की उद्दण्डता के लिए कृष्ण ने उसे जब देश-निर्वासन का दण्ड दिया था, तब द्वारवती से वह सौराष्ट्र देश में जाकर रहने लगा था। यह राष्ट्र भी उक्त हरिवंशियों के ही अधीन था।