________________
वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४७५ विशेषण (वेगवतीलम्भ : पृ. २४७) का प्रयोग किया है। अर्थात्, प्रणतिनम्र सामन्त नरेशों के मुकुटों की मणियों के किरणपुंज से उसका पादपीठ अनुरंजित रहता था। एक बार उसने वसुदेव को, यानी अपने शत्रु कृष्ण के पिता को बन्दी बनाकर और चमड़े के थैले में बन्द कराकर राजगृह के पहाड़ से नीचे फेंकवा दिया था। किन्तु, वसुदेव की विद्याधरी पत्नी वेगवती ने उन्हें बचा लिया था।
___ कथाकार के संकेतानुसार, तत्कालीन राजगृह नगर की द्यूतशाला का अपना वैशिष्ट्य था। अमात्य, सेठ, सार्थवाह, पुरोहित, नगरपाल (प्रा. तलवर), और दण्डनायक लाखों के मूल्य की मणि, रत्न और सुवर्णराशि के साथ दाँव लगाने को उस द्यूतशाला में जुटते थे। वसुदेव ने, जिन्हें विद्याधर मानसवेग एक विद्याधरी का छद्मरूप धरकर आकाश में उड़ा ले गया था और उसी क्रम में वह मगध-जनपद के राजगृह नगर में पुआल की टाल पर आकाश से आ गिरे थे, अपनी एक लाख के मूल्य की अंगूठी दाँव पर लगाकर एक करोड़ जीत लिया था और उसे गरीबों में बाँट दिया था। प्रजापति शर्मा नामक ज्योतिषी ने जरासन्ध से कहा था कि इस प्रकार के उदार आचरण करनेवाले को आप अपने शत्रु कृष्ण का पिता समझेंगे। इसी सूचना के आधार पर जरासन्ध ने वसुदेव को, गरीबों में घूतार्जित धन बाँटते समय, द्यूतशाला के द्वार पर अपने पुरुषों से बन्दी बनवाकर सीधे कारागार में डलवा दिया था और रातों-रात चुपके से उन्हें, जैसा पहले कहा गया, राजगृह के छिन्नकटक पर्वत (विपुलाचल) से नीचे छोड़वा दिया था। ___ कथाकार ने मगध-जनपद के वडक ग्राम का उल्लेख किया है। इस ग्राम के किसान बड़े परिश्रमी थे। वे रात-रात भर क्यारी पटाने के काम में लगे रहते थे। मगध-जनपद का अचलग्राम तो वेदपाठी ब्राह्मणों से भरा रहता था। वहाँ धरणिजड ब्राह्मण ब्राह्मणपुत्रों को वेद पढ़ाता था। वसुदेव जब दुबारा मगध-जनपद पहुँचे थे, तब वहाँ (राजगृह) के एक सनिवेश (नगर का बहिःप्रदेश) में ठहरे थे। वहीं से जरासन्ध के दूत डिम्भक शर्मा के संकेतानुसार सोलह राजपुरुष उन्हें पकड़कर ले गये थे। उनका अपराध यही था कि उन्होंने जरासन्ध की पुत्री इन्द्रसेना (वसन्तपुर के राजा जितशत्रु की पत्नी) को पिशाचावेश से मुक्त कराया था और ज्योतिषी ने जरासन्ध से बताया था कि ऐसा करनेवाला व्यक्ति तुम्हारे शत्रु (कृष्ण) का पिता होगा।
संघदासगणी ने पाटलिपुत्र की चर्चा नहीं की है। इससे यह संकेत मिलता है कि मगध की राजधानी के रूप में पाटलिपुत्र की मान्यता बाद में स्थापित हुई । बुद्धकालीन इतिहास से पता चलता है कि बुद्ध के समय में अवन्ती और मगध के राज्य उत्तर भारत में अपनी धाक जमा लेने के फिराक में थे, किन्तु वज्जियों के (संघदासगणी ने वैशाली और वहाँ के निवासी वज्जियों का कोई जिक्र नहीं किया है) हारने के बाद अजातशत्रु का पलड़ा भारी हो गया और इस तरह मगध उत्तर भारत में एक महान् साम्राज्य बन गया। अजातशत्रु के पुत्र और उत्तराधिकारी उदयिभद्र ने गंगा के दक्खिन में कुसुमपुर अथवा पाटलिपुत्र बसाया । यह नया नगर कदाचित् अजातशत्रु के किले के आसपास ही कहीं बसाया गया था। वर्तमान पटना के कुम्हरार में प्राप्त भवन के पुरावशेष की पहचान पुरातत्त्वविदों ने तत्कालीन पाटलिपुत्रनरेश चन्द्रगुप्त के सभा-भवन के रूप में की है। विधिवत् बसने के बाद से ही पाटलिपुत्र नगर व्यापार और राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। १. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित 'मज्झिमनिकाय', भूमिका : पृ.झ