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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा में कथा प्रस्तुत करते हुए संघदासगणी ने भारतवर्ष के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों का समीचीन समाहार ही उपस्थित कर दिया है :
“राजा भरत भारतवर्ष के चूडामणि थे। उनके ही नाम पर यह देश भारतवर्ष कहा जाता है। वह अयोध्या के अधिपति थे और उनके भाई बाहुबली हस्तिनापुर-तक्षशिला के स्वामी। भरत के शस्त्रागार में चक्ररल उत्पन्न हुआ। भरत ने चक्ररल द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से गंगा महानदी के दक्षिण तट से भारतवर्ष पर विजय प्राप्त की; पूर्व में मागध तीर्थकुमार (मगधतीर्थ के अधिष्ठाता देव) ने 'मैं महाराज का आज्ञाकारी अन्तपाल (सीमारक्षक) हूँ', कहकर भरत का सम्मान किया; दक्षिण में वरदाम तीर्थकुमार ने अपनी प्रणति निवेदित की और पश्चिम में प्रभास ने भरत की पूजा की। इसके बाद सिन्धुदेवी और वैताढ्यकुमार ने प्रणाम निवेदित किया; तमिस्रागुफा के अधिपति कृतमालदेव ने भरत को मार्ग प्रदान किया; उत्तरार्द्ध भरत-क्षेत्र के निवासी चिलात (भील) लोगों के पक्षधर मेघमुख देव ने मेघवर्षा-रूप उपसर्ग के निवारणार्थ तथा स्कन्धावार (सैन्य) की रक्षा के निमित्त छत्र और चर्मरल का सम्पुट प्रस्तुत किया; हिमवन्तकुमार ने भरत को विनयपूर्वक सम्मान
और प्रणति अर्पित की ऋषभकूट पर भरत ने अपना नाम अंकित करवाया; भरत के सेनापति ने सिन्धु और हिमालय के बीच के प्रदेश पर विजय लाभ किया; नमि और विनमि विद्याधरनरेश ने उत्तम युवतियाँ उपहार में दी; गंगादेवी ने प्रणाम किया; हिमालय, वैताढ्य की गुफा और गंगानदी के पूर्व भाग को भी भरत ने जीता; फिर खण्डप्रपात गुफा से निकलकर भरत ने नवनिधि की पूजा प्राप्त की और फिर गंगा तथा वैताढ्य के मध्यवर्ती प्रदेश के राजाओं ने रत्नपूर्ण कोष भेंट किया। इस प्रकार, दिग्विजय करके भरत अयोध्या लौट आये” (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८६)।
संघदासगणी-वर्णित पर्वतों का आधुनिक भौगोलिक दृष्टि से अध्ययन स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध का विषय है और बहुत सम्भव है कि इससे भारतीय भूगोल के अनेक अज्ञात सूत्रों का उद्भावन और तद्विषयक अनुसन्धान के क्षेत्र में विविध नये क्षितिजों का उद्घाटन हो। कथाकार द्वारा उल्लिखित पर्वतों में प्रायः सभी आगमिक हैं, किन्तु कुछेक ऐतिहासिक हैं और कुछ काल्पनिक भी हैं। कहना न होगा कि पर्वतों के वर्णन में कथाकार ने इतिहास और कल्पना के अद्भुत मिश्रण का आवर्जक परिचय दिया है।
नदियों, समुद्र और हृद:
संघदासगणी ने कुल तीस जलप्रवहण-क्षेत्रों का वर्णन किया है, जिनमें कुछ तो नदियाँ हैं और कुछ समुद्र तथा कुछ हृदों का भी निर्देश हुआ है। यहाँ संक्षिप्त टिप्पणी के माध्यम से उन पर प्रकाश-निक्षेप किया जा रहा है। ___ कथाकार ने उत्तर कुरु-स्थित आगमिक हृद का उल्लेख किया है। उनके वर्णनानुसार इस हृद के तट पर छायादार अशोक के वृक्ष होते थे और मक्खन की भाँति मुलायम वैडूर्यमणि की शिलाएँ भी प्रचुर मात्रा में थीं। यह क्षेत्र देवलोक के समान था। यहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष से उत्पन्न भोगोपभोग की सामग्री सुलभ रहती थी (नीलयशालम्भ : पृ. १६५)। 'स्थानांग' (५.१५५) में भी उल्लेख है कि जम्बूद्वीप-स्थित मन्दरपर्वत के उत्तर भाग में उत्तरकुरु नामक कुरुक्षेत्र में पाँच महाहृद थे। 'स्थानांग' के ही अनुसार (१०.१६५) सभी महाहद दस-दस योजन गहरे थे।