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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ४६५ के दीर्घवैताढ्य में तमिस्रा और खण्डप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं तथा उत्तर के ऐरवत क्षेत्र के दीर्घवैताढ्य में भी तन्नामक दो गुफाएँ है। विद्याधरनगरों की प्रत्येक श्रेणी दस-दस योजन चौड़ी है। दक्षिण के भरतक्षेत्र में गंगा और सिन्धु नाम की दो महानदियाँ प्रवाहित होती हैं। उत्तर के ऐरवत-क्षेत्र में रक्ताप्रपात और रक्तवतीप्रपात नाम के दो ह्रद हैं। इस प्रकार, 'स्थानांग' में वैताढ्य का विपुल वर्णन उपलब्ध होता है, जिसका स्वतन्त्र नैबन्धिक महत्त्व है। वैताढ्य पर्वत की वर्णन-परम्परा 'वसुदेवहिण्डी' के पूर्ववर्ती 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' तथा परवर्ती 'कथासरित्सागर' में भी प्राप्त होती है। बुधस्वामी ने वैताढ्य (प्रा. वेयड्ड) का 'वैतर्द्ध' के रूप में उल्लेख किया है : 'वैतर्द्ध' का नाम सुनते ही मदनमंजुका मुसकराई और उसकी आँखों में आँसू छलछला आये। पुनः उसके प्रति प्रीति प्रदर्शित करती हुई वह बोली (१३.१९)। और, सोमदेवभट्ट ने भी 'कथासरित्सागर' में 'वेद्यर्द्ध' (= वैतर्द्ध = वैताढ्य) की चर्चा करते हुए नरवाहनदत्त को 'उभयवेद्यर्द्धचक्रवर्ती' (८.१.१०) के रूप में स्मरण किया है । इसपर टिप्पणी करते हुए 'कथासरित्सागर' के अनुवादक पं. केदारनाथ शर्मा सारस्वत ने लिखा है कि 'उभयवेद्यर्द्ध' उत्तरध्रुव और दक्षिणध्रुव-स्थित देवस्थान विशेष है। दक्षिणध्रुव पितृयानमार्ग और उत्तरध्रुव देवयान-मार्ग कहलाता है। इन दोनों स्थानों में विद्याधरों का राज्य था।' संघदासगणी ने वैताढ्य पर्वत के क्रम में ही अष्टापद पर्वत का भी उल्लेख किया है । ऋषभस्वामी ने दस हजार साधुओं, निन्यानब्बे पुत्रों तथा आठ पौत्रों के साथ एक समय अष्टापद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८५)। अष्टापद पर्वत पर नागराज धरण ने विद्याधरनरेश विद्युदंष्ट्र के आज्ञापालक विद्याधरों को साधु के वधकार्य से विरत किया था (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५२)। राजा सगर के पुत्र भागीरथि (भगीरथ) महानदी गंगा के प्रवाह को अष्टापद पर्वत पर ले गये थे और वहीं से गंगा विभिन्न जनपदों को आप्लावित करती हुई समुद्र में मिली थी। जबकुमार प्रभृति साठ हजार सगरपुत्रों ने अष्टापद पर्वत पर प्राचीन जिनायतन देखा था, जो अष्टापद तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित था। सगरपुत्रों ने अष्टापद पर्वत की रक्षा के निमित्त उसके चारों ओर खाई खोदकर उसे गंगा की धारा से भरने का साहसपूर्ण कार्य किया था। कथाकार ने लिखा है कि खाई खोदने के बाद सगरपुत्र पूरब की ओर बहनेवाली गंगा नदी के पास गये और दण्डरल से जमीन खोदकर गंगा की धारा को उलटा प्रवाहित करके अष्टापद पर्वत की खाई तक ले आये (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३०३) । संघदासगणी ने लिखा है, यह अष्टापद वैताढ्य पर्वत की तराई से सम्बद्ध था। यह (अष्टापद) आठ योजन ऊँचा और विविध धातुओं के अंगराग से अनुरंजित था। वहाँ परमगुरु तीर्थंकर ऋषभस्वामी की परिनिर्वाण-भूमि में प्रथम चक्रवर्ती भरत के आदेश से दैवी शक्ति से सम्पन्न श्रेष्ठ वास्तुकारों ने जिनायतन का निर्माण किया था। वह जिनायतन सभी प्रकार के रनों से जटित था और वहाँ देव, दानव और विद्याधर आग्रहपूर्वक अर्चना-वन्दना के लिए आते थे (केतुमतीलम्भ : पृ. ३०९)। इस प्रकार, उपर्युक्त कथाप्रसंग के विवरण से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस युग में अष्टापद पर्वत, अपनी सांस्कृतिक गरिमा की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता था। भरत के दिग्विजय के क्रम १. कथासरित्सागर (हिन्दी-अनुवाद), द्वि.खं, द्वि. सं;प्र. बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना : पृ. २३०
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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