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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा 1 संघदासगणी ने कुशाग्रपुर (राजगृह) 'चर्चा के क्रम में वैभारगिरि का दो बार उल्लेख किया है । संघदासगणी के वर्णन से स्पष्ट होता है कि वैभारगिरि के शिखर, पादमूल तथा गुफाओं तपःशुष्क श्रमणों का निवास था । वहाँ बराबर चारणश्रमणों का पदार्पण होता रहता था । दिगम्बरों के मान्यतानुसार, भगवान् महावीर का प्रथम उपदेश राजगृह के विपुलाचल पर हुआ था। 'महाभारत' (२.२१.२) में राजगृह के पाँच पर्वतों में विपुल और वैहार ( वैभार) का स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है ।' बौद्धों के 'इसिगिल्लिसुत्त' में भी इसिगिल्लि, वेपुल, वेभार, पाण्डव और गिज्झकूट, इन पाँच पर्वतों का संकेत मिलता है । 'सुत्तनिपातभाष्य' (पृ.३८२) में पाण्डव, गिज्झकूट, वेभार, सिगिल्लि एवं वेपुल यह क्रम मिलता है, जब कि 'विमानभट्टभाष्य' में (पृ. ८२) इसिगिल्लि, वेपुल, भार, पाण्डव तथा गिज्झकूट इस क्रम से इन पर्वतों का निर्देश मिलता है। 'मार्कण्डेयपुराण' तथा 'वायुपुराण' में भी वैभार पर्वत का उल्लेख हुआ है। बौद्ध साहित्य की पिप्पलकन्दरा तथा सप्तपर्णी गुफा, जहाँ बौद्धों की प्रथम संगीति आयोजित हुई थी, वैभार पर्वत की उत्तरी-पूर्वी ढलान पर स्थित है। इस प्रकार, वैभारगिरि बौद्धों, जैनों तथा ब्राह्मणों में समान रूप से आदृत है । ४६४ ; संघदासगणी ने कथाक्रम में सम्मेदशिखर का पाँच-छह स्थलों पर उल्लेख किया है। इसका आधुनिक नाम पारसनाथ पर्वत है । इसपर चौबीस तीर्थंकरों में उन्नीस तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया था । ('तत्थ य एगुणवीसाए वीसुतजसाणं तित्थयराणं परिनिव्वाणभूमी' केतुमतीलम्भ: पृ. ३०९) । इस पर्वत का नामकरण प्रसिद्ध जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ से सम्बद्ध है । संघदासगणी ने सम्मेदशिखर को तीर्थंकरों के अतिरिक्त अनेक विद्याधरों की भी निर्वाणभूमि बताया है । 'सम्मेद ' शब्द समवेत का विकसित रूप प्रतीत होता है। एक साथ, समवेत रूप में उन्नीस तीर्थंकरों के निर्वाण की भूमि होने के कारण उक्त अनुमान सहज ही होता है, यद्यपि 'समेतशिखर', 'समिदगिरि', 'समाधिगिरि', 'मलपर्वत' आदि अन्य कई नामों से भी इसे स्मरण किया जाता है । डॉ. हीरालाल जैन के सूचनानुसार, सम्मेदशिखर पहाड़ी के समीप पूर्ववर्णित नन्दीश्वरद्वीप की वास्तुरचना की गई है। संघदासगणी द्वारा कल्पित और परिवर्णित बहुविध पर्वतों में वैताढ्य और अष्टापद पर्वतों का अपना वैशिष्ट्य है । उन्होंने अपने कथाक्रम में वैताढ्य पर्वत की भूरिशः चर्चा की है। वैताढ्य का दूसरा नाम विजयार्द्ध है । यह विद्याधरों की आवासभूमि माना गया है। यह दक्षिण और उत्तर, दो श्रेणियों में विभक्त था । 'स्थानांग ' (२.२७४.८०) के अनुसार जम्बूद्वीप में, मन्दरपर्वत के दक्षिण में, हैमवत क्षेत्र में शब्दापाती नाम का वृत्तवैताढ्य पर्वत है और उत्तर में, ऐरण्यवत (हैरण्यवत) क्षेत्र में विकटापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत है। ये दोनों क्षेत्र- प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं । इनमें कोई भेद नहीं है | कालचक्र के परिवर्तन की दृष्टि से उनमें नानात्व नहीं है। वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, संस्थान और परिधि में एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते। इसी प्रकार, मन्दर पर्वत के दक्षिण में, हरिक्षेत्र में गन्धापाती और उत्तर में, रम्यक क्षेत्र में माल्यवत्पर्याय नाम के वृत्तवैताढ्य पर्वत हैं । पुनः मन्दरपर्वत के दक्षिण में भरत - क्षेत्र में और उत्तर में ऐरवत-क्षेत्र में दो दीर्घवैताढ्य पर्वत हैं । इस प्रकार, वैताढ्य पर्वत के छह खण्ड माने गये हैं। दक्षिण के भरत - क्षेत्र १. वैहारो विपुलः शैलो वाराहो वृषभस्तथा । तथर्षिगिरिविस्तारः शुभचैत्यकपञ्चमः ॥ (२.२१.२) २. विशेष विवरण के लिए द्र. 'परिषद्-पत्रिका' : वर्ष १८ : अंक ३ (अक्टू. १९७८ ई) : पृ. २२, २४
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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