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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ___ कथाकार द्वारा वर्णित इषुवेगा नदी, नाम के अनुसार ही, तीर की तरह वेगवाली थी। इसलिए, इसे तैरकर पार करना सम्भव नहीं होता था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ.१४८)। आधुनिक भूगोलवेत्ताओं ने इस नदी की पहचान मध्य एशिया में बहनेवाली प्रखरधारवती वंक्षु नदी से की है। कथाकार के अनुसार, इरावती नदी भूतरला अटवी में प्रवाहित होती थी, जहाँ जटिलकौशिक तपस्वी का आश्रम था (केतुमतीलम्भ : पृ.३२३)। डॉ. मोतीचन्द्र के अनुसार , यह नदी मलय-प्रायद्वीप में बहती थी और इसके मुहाने पर मिलनेवाली कछुए की खपड़ियों की, रोम में बड़ी माँग थी। उन्होंने यह भी लिखा है कि फाहियान के साथी घूमते-घामते पामीर के रास्ते चीन पहुँचे थे। शायद वे असम तथा इरावती की ऊपरी घाटी और यूनान के रास्ते वहाँ पहुँचे होंगे। कथाकार संघदासगणी के संकेतानुसार, धम्मिल्ल, चम्पापुरी के राजा कपिल के घोड़े पर चढ़कर उसका दमन करने के क्रम में ऊबड़-खाबड़ भूमिवाली कनकबालुका नदी के तट पर पहुँच गया था। इस नदी के तट पर स्थित वनखण्ड में विद्याधर विद्या की सिद्धि के लिए आते थे। यहाँ के वनखण्ड में सघन वंशगुल्मों की प्रचुरता थी, जिसमें पैठकर विद्याधर विद्या सिद्ध करते थे (धम्मिल्लचरित : पृ. ६७-६२)। इस नदी के नाम से यह अनुमान होता है कि इसकी बालू में स्वर्णकण मिले रहते थे।
कथाकार द्वारा निर्दिष्ट लवणसमुद्र (प्रतिमुख : पृ. ११०; बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५१; केतुमतीलम्भ : पृ. ३४५) तथा कालोद (कालोदधि) समुद्र (प्रतिमुख : पृ. ११०) तो स्पष्ट ही आगमिक हैं, जिनकी चर्चा द्वीप-प्रकरण में की जा चुकी है। क्षीरोदसमुद्र भी 'स्थानांग' में वर्णित है, जिसका विवरण भी द्वीप-प्रकरण में द्रष्टव्य है। उदधिकुमार देवों ने ऋषभस्वामी की चिता क्षीरोदसमुद्र के जल से ही बुझाई थी (नीलयशालम्भ : पृ. १८५)।
संघदासगणी ने तो गंगावतरण का विशद वर्णन किया है। उसी क्रम में गंगा के मार्ग का भी निर्देश किया है : कुमार भागीरथि (भगीरथ) रथ पर चढ़कर दण्डरल से नदी की धारा को मोड़ने लगा और उसे कुरु-जनपद के बीच से होकर हस्तिनापुर ले आया, फिर दक्षिण में -कोसल-जनपद से होते हुए पश्चिम में, जहाँ नागभवन था, वहाँ खींच लाया। वहाँ कुमार ने नागराज ज्वलनप्रभ को नागबलि अर्पित की। उसी समय से नागबलि की प्रथा प्रारम्भ हुई। फिर, कुमार भागीरथि (ब्राह्मणपुराणों द्वारा स्वीकृत नाम भगीरथ) गंगा को प्रयाग के उत्तर और काशी के दक्षिण से होकर विन्ध्यप्रदेश की ओर ले गया और फिर महानदी गंगा मगध के उत्तर और अंग के दक्षिणवर्ती हजारों-हजार नदियों को समृद्ध करती हुई समुद्र में मिल गई। गंगा जहाँ समुद्र में मिली, वहाँ 'गंगासागर' तीर्थ प्रतिष्ठित हो गया। चूँकि, पहले-पहल जह्रकुमार ने गंगा का आकर्षण किया था, इसलिए उसे 'जाह्नवी' कहा जाता है। बाद में, भागीरथि (भगीरथ) ने आकर्षण किया, इसलिए वह गंगा ‘भागीरथी' कहलाई (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३०५)।
'स्थानांग'(५. २३०) में भी भरत-क्षेत्र में बहनेवाली गंगा को महानदी कहा गया है। गंगा नदी की महत्ता बड़ी प्राचीन. है। इसलिए सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय गंगा के वर्णन वैविध्य से विमण्डित है। कथाकार संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में गंगा नदी का एक नहीं, अपितु अनेक स्थलों पर साग्रह वर्णन किया है। १. द्र 'सार्थवाह' (वही) : पृ.१२४ २. उपरिवत् : पृ.१८७