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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
उत्तरदायित्व राजा का होता था । मथुरा का सागरदत्त सार्थवाह जब विदेश में समुद्रयात्रा पर था, तभी एक वणिक्पुत्र नागसेन ने कुट्टनी परिव्राजिका अंजनसेना की सहायता से सार्थवाह की पत्नी मित्रश्री के शील का हरण कर लिया था। राजा शूरसेन को जब इसका पता चला, तब उसके द्वारा प्रेरित राजपुरुषों ने अचानक नागसेन को मित्रश्री के घर में ही पकड़ लिया। आचार का अतिक्रमण करनेवाले नागसेन को मृत्युदण्ड मिला और उसकी कुकर्म-सहायिका अंजनसेना के नाक-कान काट लिये गये; क्योंकि स्त्री के लिए वध का दण्ड वर्जित था। इस प्रकार, उसे विरूपित करने के बाद, देश से निर्वासित कर दिया गया। राजा का दण्डमूलक आदेश इस प्रकार है: “रण्णा भणियं - मया रक्खयव्वा वणियदारा, सत्यवाहा देसंतराणि समुदं संचरंति, एसो नागसेणो आयारातिक्कंतो वज्झो, इत्थिगा परिव्वायगा कण्णनासविकप्पिया णिज्जुहियव्वा । ततो नागसेणो सूलं पोई आ " ( मदनवेगालम्भ : पृ. २३३) ।
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इस कथा से यह स्पष्ट है कि उस समय भी स्त्री और परिव्राजिका को मृत्युदण्ड देने का प्रावधान नहीं था। परिव्राजिका अंजनसेना पर कठोर छविच्छेद- दण्ड की भीषण प्रतिक्रिया हुई । फलस्वरूप, उसने कनखल के निकट, हरद्वार में गंगातट पर घोर अनशन करके मृत्यु का वरण कर लिया। ऐसी ही स्थिति में दण्ड का सम्बन्ध प्रायश्चित्त से सहज ही जुड़ जाता है।
इसी प्रकार, एक कथा है कि पोतनपुर के राजा ने धारण नामक वणिक् की जीभ कटवा ली थी; क्योंकि धारण ने व्यापार करने के लिए उधार में प्राप्त अपने वणिक् मित्र रेवती के एक लाख रुपये का माल हड़प लिया था और वह झूठ बोलकर एक लाख रुपये वापस करने की शर्त से मुकर गया था ( प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २९५) । कौटिल्य ने इस प्रकार के अपराध के लिए बारह पण दण्ड वसूलने का विधान किया है ('विक्रीय पण्यमप्रयच्छतो द्वादशपणो दण्डः ; ३.७१.१५)। इससे स्पष्ट है कि संघदासगणी द्वारा वर्णित राजकुल की दण्डनीति अतिशय उग्र थी । तत्कालीन राजन्य-वर्ग नमिस्वामी द्वारा प्रवर्त्तित चातुर्याम धर्म का पालन करता था, इसलिए उस वर्ग के सदस्य हिंसाकारियों, मिथ्यावादियों, व्यभिचारियों और परिग्रहियों को कभी सहन नहीं करते थे और वैसे अपराधियों के लिए कठोर से कठोर दण्ड की व्यवस्था की जाती थी ।
निक्षेप या न्यास ( धरोहर ) के रूप में रखे गये धन को हड़पनेवाले के लिए कौटिल्य ने यथोचित दण्ड देने का विधान किया है (अर्थशास्त्र : ३. ६८. १२) । संघदासगणी ने भी एक कथा
मित्र सार्थवाह की थाती हड़पनेवाले श्रीभूति पुरोहित के लिए राजा सिंहसेन द्वारा निर्वासन-दण्ड दिये जाने का उल्लेख किया है ('भद्दमित्तो समक्खं पुरोहियस्स विक्कोसमाणो कयत्यो जाओ रण निक्खेवेण । सिरिभूती य निव्वासिओ नयराओ; बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५३) ।
'वसुदेवहिण्डी' से यह सूचना मिलती है कि उस समय दण्ड वसूल करके राजकोष में जमा किया जाता था। पीठिका - प्रकरण (पृ. ९१ ) में एक कथा है कि हस्तिनापुर के राजा मधु ने आमलकल्पा नगरी के राजा कनकरथ के साथ प्रेम बढ़ाकर उसका विश्वास अर्जित किया, फिर धीरे-धीरे युक्तिकौशल से उसकी रानी चन्द्राभा को हथिया लिया । एक दिन चन्द्राभा चिन्तामग्न होकर नगर से बाहर खेत की ओर देख रही थी और अपने पति कनकरथ, जो राजा मधु के डर से घरबार छोड़कर तपस्वी हो गया था, की स्मृति से अन्तर्दग्ध थी। तभी मधु आया और उससे पूछा : 'रानी, बहुत ध्यान से क्या देख रही हो ?' रानी ने बात बदलकर कहा :