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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४३१ या दूसरा कुछ अप्रिय भी?' गंगरक्षित बोला: "मित्र अपना प्राण देकर भी हित करता है।' तब दासियों ने उसका सिर पकड़ लिया और कहा : 'यदि तुम स्वामिनी का मित्र हो, तो उनके लिए अपना सिर दे दो।' 'ले लो', उसने कहा। तब वे बोलीं: 'हमारे लिए यह वरदान तुम्हारे पास सुरक्षित रहा। काम पड़ने पर ले लिया जायगा।' ___ एक दिन कौमुदिका ने तो गंगरक्षित को भारी परेशानी में डाल दिया। वह प्रियंगुसुन्दरी का हार उसके घर में रख आई और इस प्रकार उसने हार चुराने के अभियोग में उसे राजा से दण्ड दिलवाने का षड्यन्त्र किया। विवश होकर गंगरक्षित प्रियंगुसुन्दरी के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगा : 'स्वामिनी ! प्रसन्न हों, आप हार यहाँ मँगवा लें, तभी मैं समझूगा कि आपने मुझे जीवनदान दिया।' तब प्रियंगुसुन्दरी से उसे आश्वस्त किया।
एक दिन किन्नरी नाम की दासी आई और गंगरक्षित को उलाहना देने लगी। कभी वह उसे गाली भी देती और उसका मजाक भी उड़ाती। गंगरक्षित को क्रोध हो आया। वह बेंत हाथ में लेकर उसे मारने दौड़ा, तो वह भागती हुई घर (कन्या के अन्तःपुर) में जा घुसी। वह भी उसके पीछे-पीछे गया। तब उसने उससे कहा : 'यह जगह कौन-सी है, पहले इसे जान लो, तभी मेरा स्पर्श करना।' उसकी इस बात से डरकर गंगरक्षित पीछे लौट आया।
दासियों को पता था किं प्रियंगुसुन्दरी वसुदेव को चाहती है। अतएव, उन्होंने गंगरक्षित से आग्रह किया कि वह वसुदेव को चुपके से कन्याओं के अन्तःपुर में ले आये। गंगरक्षित ने अशोकवनिका में जाकर, वहाँ ठहरे हुए वसुदेव से निवेदन किया। वसुदेव ने सोचा : अकुलोचित, अधर्ममूलक, अपयशकारक तथा जीवन के लिए सन्देहजनक होने के कारण परस्त्री-गमन उचित नहीं है। फिर, राजकन्या के साथ समागम तो कभी सुखद सम्भव नहीं। तब, गंगरक्षित प्रियंगुसुन्दरी को अशोकवनिका के नागघर में ले आया। वसुदेव वहीं प्रियंगुसुन्दरी के साथ गन्धर्व-विवाह करके उसके साथ रमण करने लगे और गंगरक्षित नागघर के द्वार की रखवाली करने लगा। पुन: गंगरक्षित ने वसुदेव को महिला का वेश धारण कराया और पालकी में बैठाकर उन्हें वह कन्या के अन्त:पुर में ले आया। वहाँ वसुदेव देवलोक के अनुरूप सुखभोग करने लगे। ___ जब गंगरक्षित ने प्रियंगुसुन्दरी से वसुदेव को अन्तःपुर से बाहर ले जाने की आज्ञा माँगी, तब प्रियंगुन्दरी ने उससे एक सप्ताह के लिए वसुदेव को अन्त:पुर में ही रखने का आग्रह किया। एक सप्ताह बीतने पर वसुदेव ने भी एक सप्ताह माँगा। दूसरा सप्ताह बीतने पर कौमुदिका गंगरक्षित को फटकारती हुई बोली: 'क्या हम दासियों से तुम्हें जूते खाने का मन है ? अगर इन दोनों को एक-एक सप्ताह रहने की अनुमति दी है, तो हमें भी दो।' इस प्रकार, कन्या के अन्तःपुर में प्रच्छन्न रूप से रहते हुए वसुदेव के इक्कीस दिन क्षण के समान बीत गये।
__बाईसवें दिन, भय से सूखे होंठ-कंण्ठ लिये गंगरक्षित अन्त:पुर में आया और वसुदेव से कहने लगा : 'स्वामी । अन्त:पुरवासी अमात्य, दासी, भृत्यवर्ग और नगर के सर्वसाधारण जन में यह बात खुल गई है कि कन्या के अन्त:पुर में कोई दुर्जन घूम रहा है। इसके अतिरिक्त, मालाकार भी यही बोल रहे हैं और गन्धिक (इत्रफरोश) भी गालियाँ दे रहे हैं।' तब, कौमुदिका ने दृढ़ भाव से कहा : 'अगर तमाम शहर में, अन्तःपुर में दुर्जन-प्रवेश की बात फैल गई है, तो क्या हुआ, स्वामिपाद तो यहाँ रहते ही हैं।' गंगरक्षित के दीन-करुण चेहरे को देखकर वसुदेव ने उससे