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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४२१ __ इस कथाप्रसंग से यह महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है कि अनुकूल राजा की प्राप्ति के लिए प्रजाओं की अनुकूलता भी अनिवार्य थी। इससे 'यथा राजा तथा प्रजा' जैसे स्मृति-वचनों की भी सार्थकता सिद्ध होती है । साथ ही, यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीन शासन-पद्धति राजतन्त्रात्मक होते हुए भी उसकी संघ-व्यवस्था प्रजातन्त्रात्मक थी।
वैदिक मान्यता के अनुसार, राजा के लिए प्राथमिक कर्तव्य राष्ट्रहित और प्रजाहित था। हिन्दुओं की एकराजता का यह महान् आदर्श, जिसका एकमात्र उद्देश्य प्रजा की भलाई था, संसार की तत्कालीन राजनीति के इतिहास में अपना सर्वोत्तम और अद्वितीय स्थान रखता था। वस्तुतः, वह एक नागरिक राज्य था, जिसके प्रान्तीय शासक या माण्डलिक सदा नागरिक ही हुआ करते थे। इस एकराज शासन की अनेक प्रणालियाँ प्रचलित थीं : जैसे राज्य, महाराज्य, आधिपत्य
और सार्वभौम । सार्वभौम शासन-प्रणाली का विकास आगे चलकर चक्रवर्ती शासन-प्रणाली के रूप में प्रकट हुआ। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में, इस सम्बन्ध में कहा है कि 'सारी भारत-भूमि देश है। उसमें उत्तर से दक्षिण, हिमालय से समुद्र तक तथा एक हजार योजन विस्तृत पूर्व और पश्चिम की सीमाओं के बीच का भूभाग चक्रवत्ती-क्षेत्र है।
'वसुदेवहिण्डी' में भी अरनाथ (केतुमती. पृ. ३४७), कुन्थुनाथ (तत्रैव), शान्तिनाथ (तत्रैव : पृ. ३१०), जय (सोमश्री. पृ. १८९), भरत (नीलयशा. पृ. १६२), मघवा (मदनवेगा. पृ. २३४), महापद्म (गन्धर्व. पृ. १२८), रत्नध्वज (केतुमती. पृ. ३२१), वज्रदत्त (कथोत्पत्ति : पृ. २३), वज्रनाभ (नीलयशा. पृ. १७७), वज्रसेन (तत्रैव : पृ. १७५), वज्रायुध (प्रभावती. पृ. ३२९), सगर (प्रियंगु, पृ. ३००), सनत्कुमार (मदनवेगा. पृ. २३३), सुभौम (सोमश्री. पृ. १८८) आदि चक्रवर्ती राजाओं की परम्परा का उल्लेख हुआ है। शास्त्र-व्यवस्था की दृष्टि से तत्कालीन समग्र राष्ट्र पुरों और जनपदों में विभक्त था। जनपद राज्य का और पुर राजधानी का प्रतिरूप था।
मन्त्रिपरिषद् :
राष्ट्र के प्रशासन के लिए, उस युग में मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था रहती थी। मन्त्रिपरिषद् की योजना का मुख्य उद्देश्य था प्रत्येक राजकीय समस्या पर विचार करना और राज्य की उन्नति के लिए योजनाएँ बनाना। कौटिल्य ने भी सभी राजकार्यों को मन्त्रणा के बाद ही क्रियान्वित करने का विधान किया है। इस मन्त्रणा को राजा एकाकी नहीं कर सकता था। अकेले में विचारित कार्यक्रमों की सफलता सन्दिग्ध होती है, इसलिए समुचित परामर्श के लिए मन्त्रिपरिषद् की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है।
'वसुदेवहिण्डी' में भी अनेक मन्त्रियों का वर्णन हुआ है। बलदेव की पुत्री सुमति के लिए ईहानन्द नामक मन्त्री के साथ विचार-विमर्श के बाद ही स्वयंवर का आयोजन किया गया था (केतुमतीलम्भ : पृ. ३२७) । प्रौषधव्रतपूर्वक, सिद्धायतन में जिन-पूजा करके स्वयम्प्रभा जब निर्माल्य देने के निमित्त अपने पिता राजा ज्वलनजटी के सामने आई, तब उसके रूप-यौवन को देख राजा को उसकी शादी कर देने की चिन्ता हो गई। तब, उसने अपनी मन्त्रपरिषद् के सदस्यों से स्वयम्प्रभा के लिए कुल, रूप और विशिष्ट ज्ञान के अनुरूप वर के विषय में विचार-विमर्श किया। कथाकार ने १. देशः पृथिवी । तस्यां हिमवत्समुद्रान्तरमुदीचीनं योजनसहस्रपरिमाणं तिर्यक् चक्रवर्तिक्षेत्रम् । (९.१)