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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
अपना सुख मानता था ('पयासुहे सुहं ति ववसिओ; कथोत्पत्ति : पृ. २)। कुशाग्रपुर का राजा जितशत्रु अपने विभिन्न कुटुम्बीजनों, अर्थात् प्रजाजनों के मनोरथ की पूर्ति में ही श्रेष्ठ धन का वितरण करता था, इसीलिए उसे 'अन्नकुडुबिजणमणोरहपत्थणिज्जवित्थिण्णविहवसारो' विशेषण से विभूषित किया गया है (तत्रैव : पृ. २७)। कंस भी प्रकृतिरंजक राजा था ('कंसेण य पगतीओ रंजेऊण; देवकीलम्भ : पृ. ३६८)। भारतवर्ष के छत्राकार नगर के राजा का प्रीतिंकर नाम प्रजाओं में प्रीति उत्पन्न करने के कारण ही सार्थक हुआ था ('तत्य पीईकरो पयाणं पीइंकरो नाम राया'; बालचन्द्रालम्भ : पृ.२५८)।
कथाकार ने राम के मुख से राजा के आदर्श गुणों का वर्णन कराया है। जब भरत की माँ कैकेयी ने राम से आग्रह किया कि वह जंगल जाना छोड़ दें और कलंक-पंक से उसके उद्धार के लिए कुलक्रमागत राज्यलक्ष्मी और भाइयों का परिपालन करें। तब राम ने कैकेयी से कहा : “माँ, तुम्हारा वचन मेरे लिए अनुल्लंघनीय है। फिर भी, उल्लंघन का कारण यह है कि जो राजा सत्यप्रतिज्ञ होता है, वही प्रजापालन में समर्थ होता है। लेकिन, सत्य से भ्रष्ट राजा तो अश्रद्धेय होता है और तब वह अपनी पत्नी के पालन में भी अयोग्य सिद्ध होता है (चौदहवाँ मदनवेगालम्भ : पृ. २४२)।"
"वसुदेवहिण्डी' में, पितृ-पितामह-परम्परागत राजतन्त्रात्मक शासन-पद्धति का ही सार्वत्रिक उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में इस राजतन्त्रात्मक शासन-पद्धति को नियन्त्रित
और अनियन्त्रित-इन दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। इन पद्धतियों से प्रशासन करनेवाले राजा का यह दावा रहा है कि उसकी उत्पत्ति दैवी है, जो या तो विना किसी प्रकार के विरोध के देश पर अधिकार कर लेता था अथवा विरोध को दबाकर बलात् सारे शासन को स्वायत्त कर लेता था। यह अनियन्त्रित राज्यतन्त्र का उदाहरण है। दूसरे, नियन्त्रण की दशा में तो वह जनता की अनुमति से, ही जनता पर अधिकार करता था। वैदिक ग्रन्थों (ऋग्वेद : १.२४.८; १०.१७५.१; अथर्ववेद : ३.४.२) में यह भी देखने को मिलता है कि नियन्त्रित राज्यतन्त्र में राजा या तो चुना जाता था या स्वीकृत या मनोनीत किया जाता था। 'वसुदेवहिण्डी' में कथा है कि प्रजाओं की अनुमति से ही ऋषभस्वामी राजा के रूप में स्वीकृत हुए थे। कालदोष से लोग जब कुलकरों द्वारा प्रवर्तित दण्डनीति की मर्यादा का अतिक्रमण करने लगे, तब उत्पीडित प्रजाएँ भगवान् ऋषभस्वामी के निकट गईं। भगवान् ने उनसे कहा : 'इस समय जिस राजा की दण्डनीति उग्र होगी, वही प्रजा-पालन में समर्थ होगा।' प्रजाओं के पूछने पर भगवान् ऋषभदेव ने उनके अनुकूल राजा के लक्षण और राजसेवा की विधि को विशदता से बताया और उन्हें आश्वस्त किया कि चूँकि आप सभी योग्य प्रजा हैं, इसलिए आपको राजा भी अनुकूल मिलेंगे। इसके बाद उन्होंने प्रजाओं को अपने पिता नाभिकुमार के निकट भेज दिया। राजा नाभि ने कहा : 'आप सभी ऋषभदेव को राज्यासन पर बैठाइए।' प्रजाजन इस बात को स्वीकार कर चले गये (नीलयशालम्भ : पृ. १६२)। १.(क) इहं सोमदेवो राया पिठ-पियामहपरंपरागयरायलच्छी पडिपालेई । (सोमश्रीलम्भ : पृ. २२२) (ख) तत्य य राया पिउ-पियामहपरंपरागयं रायसिरिं परिपालेमाणो सजलमेघनाओ य मेघनाओ नाम
आसी। (मदनवेगालम्भ : पृ.२३०)