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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४१९ की कला पर संघदासगणी का आधिपत्य स्पष्ट है। इस कथाकार द्वारा निरूपित संस्कृति के स्वरूप में ज्ञान-विज्ञान के विविध विकास को दरसाने तथा लोक अवधारणा की विभिन्न शाखाओं के बीच समन्वयन या सन्तुलन स्थापित करने की विशेष प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।
कथाकार संघदासगणी ने अपनी रचना-प्रक्रिया में प्राचीन भारतीय संस्कृति के क्षेत्र की अतिशय विस्तीर्णता को निरन्तर ध्यान में रखा है, इसलिए इस कथाग्रन्थ में सांस्कृतिक तत्त्वों के विभिन्न पक्ष या विविध विषय, जैसे मिथकाधृत और शास्त्रनिष्ठ धार्मिक आस्थामूलक लोकतत्त्व, दर्शनशास्त्र, कला, सौन्दर्यशास्त्र, मनोविज्ञान, विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल, राजनीति इत्यादि एक साथ समाहित हैं। अवश्य ही, 'वसुदेवहिण्डी' उक्त विषयों का आकरस्रोत है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' में प्रतिपादित प्राचीन भारतीय संस्कृति से पर्यावृत सामान्य लोकजीवन बड़ा व्यापक है, इसलिए इसके अन्तर्गत विषय-सामग्री के अनेक परिसर हैं। संघदासगणी द्वारा कीर्तित संस्कृति में शोभा-सौन्दर्य, विशिष्ट चमत्कारी रूप-विधान, अनुकरणअलंकरण, अभिव्यक्ति माध्यम, सशक्त उपयुक्त अभिव्यंजना, कल्पनाप्रौढि, प्रातिभ स्फुरण, वैदुषी विचक्षणता, शास्त्रदीक्षित आचार, सत्य-शिव-सुन्दर, सादृश्याभास, लोकमंगल या मानव-कल्याण, आनन्द, संवेग, रस, समानुभूति, औदात्त्य, वर्णन-विपुलता, व्यतिरेकी बिम्ब-विधान, अर्थातिशय, देहात्मज्ञान, प्रगाढ ऐन्द्रिय बोध इत्यादि अनेक ऐसे विषय हैं, जिनका सम्बन्ध विभिन्न भारतीय शास्त्रों से है।
. उपर्युक्त विवेचनात्मक दृष्टि से स्पष्ट है कि अधीती कथाकार संघदासगणी द्वारा 'वसुदेवहिण्डी में अंकित सामान्य सांस्कृतिक जीवन अत्यन्त समृद्ध और कलावरेण्य है, जिससे वह आत्मरक्षा तथा प्रतिरक्षा के लिए सतत सतर्क, ज्ञान-विज्ञान के प्रति अभिरुचिशील, साहसी और अध्यवसायी, नारी-पूजक, परलोक या पुनर्जन्म के प्रति दृढ़ आस्था से सम्पन्न, स्वर्ग-नरक, देव-देवी आदि के प्रति विश्वास के कारण दयादानशील, सामाजिक और राजनीतिक चेतना से अनुप्राणित, मानव और विद्याधरों की समकक्षता के लिए निरन्तर संघर्षशील, सम्यक्त्वाचार का आग्रही, साधुनिष्ठ, प्रकृति-जगत् के प्रति प्रीतिमान् आदि अपने अनेक भव्य-निर्मल रूपों की मनोरमता से मण्डित महान् लोकनायक कथाकार बन गये हैं।
(ग) प्रशासन एवं अर्थ-व्यवस्था राज्य प्रशासन प्रजा या लोकजीवन से सम्बद्ध है, साथ ही राजाओं द्वारा प्रशासित समाज से भी जनगत सांस्कृतिक चेतना के अनेक तत्त्वों का उद्भावन होता है, इसलिए 'वसुदेवहिण्डी' में वर्णित लोकजीवन के अध्ययन के सन्दर्भ में उसके महत्त्वपूर्ण अंगभूत राज्य-प्रशासन-विधि पर दृक्पात करना अपेक्षित है।
प्रजारंजन या लोकरंजन ही प्रशासन का पर्याय है। प्रकृतिरंजन के कारण ही 'राजा' संज्ञा अन्वर्थ होती है। कालिदास ने 'रघुवंश' में राजा रघु के लिए कहा भी है : 'तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् (४.१२)।' इसीलिए, प्रजापालन में अक्षम राजा प्रशासन नहीं कर सकता है। प्रजापालक ही सच्चा प्रशासक होता है। 'वसुदेवहिण्डी' में वर्णित प्राय: सभी राजा प्रकृतिरंजक या प्रजापालक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। राजगृह का राजा श्रेणिक प्रजासुख में ही