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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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भोग्या गणिका, कहा है । अप्सराओं के उक्त चार नामों के अतिरिक्त अमरसिंह ने घृताची, सुकेशी, मंजुघोषा आदि नामों के भी होने का संकेत किया है।' ये अप्सराएँ प्रकट और अन्तर्धान होने की शक्ति से भी सम्पन्न होती थीं ।
रोषप्रदीप्त विष्णुकुमार ने जब अपने शरीर का अपरिमेय विस्तार किया, तब लगा कि जैसे वह धरती को ही लील जायेंगे । ऐसी स्थिति में उन्हें गीत-नृत्तोपहार से अनुनीत और शान्त करने
लिए सौधर्मेन्द्र ने अपनी अप्सराओं-तिलोत्तमा, रम्भा, मेनका और उर्वशी को हस्तिनापुर जाने का आदेश दिया था । उन अप्सराओं ने सौधर्म स्वर्ग से हस्तिनापुर आकर विष्णुकुमार की आँखों के समक्ष नृत्य किया था ।
चारुदत्त को, मदविह्वल स्थिति में, वसन्ततिलका में अप्सरा का भ्रम हुआ था । मधु के प्रभाव से जब उसका पैर लड़खड़ाने लगा था, तब उस भ्रान्तिमयी अप्सरा ने दायें हाथ से चारुदत्त की भुजाओं और माथे को सहारा दिया था । लड़खड़ाता हुआ चारुदत्त उसके गले से लग गया था। तभी उसके शरीर के स्पर्श से चारुदत्त को अनुभव हुआ कि निश्चय ही यह इन्द्र की अप्सरा है (तत्रैव : पृ. १४३) । कथाकार ने इस स्पर्श की विशिष्टता का विवरण तो नहीं दिया है, किन्तु यह तो स्पष्ट ही आभासित होता है कि उस युग में मनुष्यों को भी अप्सराओं के मृदुल मांसल अंगों के अतिमानवीय विशिष्ट स्पर्श का परमसुख उपलब्ध होता था । यों, विश्वामित्र का मेनका के साथ और राजा पुरूरवा का उर्वशी के साथ सम्भोग समारम्भ की वेदोक्त कथाएँ सर्वविदित हैं । कहना न होगा कि मनुष्यों को सुखभोग की चरम सीमा पर पहुँचाकर सहसा अन्तर्हित हो जानेवाली परियों की कथाएँ भारतीय साहित्य ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व-साहित्य में विविधता, विचित्रता और व्यापकता के साथ वर्णित हुई हैं ।
संघदासगणी ने अप्सराओं के मोहक रूप साथ ही उनके वित्रासक रूप का भी वर्णन किया है । यद्यपि, उनका यह वित्रासन-कार्य किसी तपस्वी को विघ्नित करनेवाले व्यन्तरदेवों के प्रति हुआ करता था । कथा है कि एक दिन वज्रायुध सिद्ध पर्वत पर गया । वहाँ उसने शिलापट्ट पर 'नमो सिद्धाणं' इस नमस्कार - मन्त्र का उच्चारण कर इस निश्चय के साथ कायोत्सर्ग किया कि यदि कुछ उपसर्ग उत्पन्न होंगे, तो मैं उन सबका सहन करूँगा । इसके बाद वह वैरोचन (अग्नि)-स्तम्भ की तरह स्थिर होकर सांवत्सरिक व्रत करने लगा ।
उसी समय अश्वग्रीव के पुत्र मणिकण्ठ और मणिकेतु असुरकुमार के रूप में उत्पन्न होकर वज्रायुध के तपोव्रत में अनेक प्रकार के विघ्न उत्पन्न करने लगे । किन्तु वज्रायुध उपसर्गों का सम्यक् सहन करता रहा। इसी समय रम्भा और तिलोत्तमा नाम की अप्सराएँ उत्तर वैक्रिय (स्वभाव से भिन्न रूप धरकर वहाँ आईं और असुरकुमारों को वित्रासित करने लगीं, फलतः असुरकुमार अन्तर्हित हो गये । तदनन्तर, उन अप्सराओं ने तपोनिरत वज्रायुध की वन्दना की और नृत्य दिखाकर वापस चली गईं (केतुमतीलम्भ : पृ. ३३२) ।
१. स्त्रियां बहुष्वप्सरसः स्वर्वेश्या उर्वशीमुखाः ।
घृताची मेनका रम्भा उर्वशी च तिलोत्तमा ।
सुकेशी मञ्जुघोषाद्याः कथ्यन्तेऽप्सरसो बुधैः ॥ (प्रथमकाण्ड, स्वर्ग-वर्ग)