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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
कि पशुहिंसा के समर्थक राजा वसु के छह पुत्र राज्याभिषिक्त हुए थे, जिनका अभिनिविष्ट देवियों में विनाश कर दिया था (पद्मावतीलम्भ : पृ. ३५७) । देवियाँ धर्म से विचलित करने के निमित्त अनेक प्रकार के मोहन, उद्दीपन आदि उपायों से काम लेती थीं। राजा मेघरथ की धर्म के प्रति अविचल आस्था को सहन न कर सकने के कारण ईशानेन्द्र की सुरूपा और अतिरूपा नाम की देवियाँ उसे विचलित करने की बुद्धि से दिव्य उत्तर वैक्रिय (अस्वाभाविक) रूप धारण करके आईं
और उन्होंने रात्रि में कामोद्दीपन के अनुकूल समस्त प्रकार के विघ्न उपस्थित किये, फिर भी वे मेघरथ को विचलित करने में असमर्थ रहीं। । सुबह होने पर वे देवियाँ मेघरथ की वन्दना और स्तुति करके वापस चली गईं (केतुमतीलम्भ : पृ. ३३९) । बौद्ध वाङ्मय में इसी प्रकार के तपोविघ्न उत्पन्न करनेवाले तत्त्वों को ‘मार' की संज्ञा दी गई है।
धारिणी धरती या पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजी जाती थीं। उद्यान की जुताई के समय, हल की नोक के आगे धरती से जब कन्या (सीता) निकली, तब राजा जनक ने उसे धारिणी देवी के द्वारा प्रदत्त प्रसाद के रूप में स्वीकार किया था : “तओ नंगलेणं उक्खित्तं' त्ति निवेइयं रण्णो। धारिणीए देवीए दत्ता धूया चंदलेहा विव वड्डमाणी जणनयण-मणहरी जाया। ततो 'रूवस्सिणि' त्ति काऊण जणकेण पिउणा सयंवरो आइट्ठो"; (मदनवेगालम्भ : पृ. २४१) ।
ज्योतिष्क देवों में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे की चर्चा की जा चुकी है। ये ज्योतिष्क देव शुभाशुभ कर्म के प्रत्यक्ष साक्षी होते हैं। क्षीरकदम्ब उपाध्याय ने परीक्षा के निमित्त जब अपने पुत्र पर्वतक से बकरे को सूने स्थान में ले जाकर वध करने को कहा, तब उसने गली को सूना जानकर शस्त्र से बकरे का वध कर दिया और घर लौटकर उसने पिता से सारी बात बताई । तब पिता ने उसकी भर्त्सना की : “अरे पापी ! ज्योतिष्कदेव, वनस्पतिदेव और प्रच्छन्नचारी गुह्यकदेव मनुष्यचरित का पर्यवेक्षण करते हैं और फिर स्वयं अपनी आँखों से देखते हुए भी तुमने नहीं देख रहा हूँ', ऐसा मानकर बकरे का वध कर डाला ! समझो, तुम नरक में चले गये (सोमश्रीलम्भ : पृ. १९०) । इस प्रकार, जैन मान्यता के अनुसार, कोई स्थान जनशून्य नहीं है । और, यदि कोई शून्यस्थान मानकर पापकर्म करता है, तो वह उसकी मिथ्याभ्रान्ति है । क्योंकि, देव सर्वत्र व्याप्त हैं । देवों की व्यापकता का सिद्धान्त ब्राह्मण-परम्परा में भी स्वीकृत है। ‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणच ।।' 'श्वेताश्वतरोपनिषद् का' यह वचन इसका प्रमाण है । 'गीता' में भी कहा है : 'गतिर्भर्त्ता प्रभुः साक्षी ' (९.१८) । ___व्रतस्थित साधुओं के भिक्षाग्रहण या पारण के अवसर पर देव फूल, रत्न, गन्धोदक आदि की वर्षा तो करते ही थे, केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय भी उद्योत (प्रकाश) फैलाते थे। पुन: वे देव चक्रवर्ती राजा के घर में रत्न, चक्र आदि उत्पन्न करते थे। जब कोई राजा चक्रवर्ती के पद पर प्रतिष्ठित होता था, तब चौदह रत्न और नवनिधि में अधिष्ठित देव उसके आज्ञाकारी हो जाते थे। ऋषभस्वामी को जिस दिन केवलोत्पत्ति हुई, उस दिन उनके लिए चक्र और रत्न उत्पन्न हुए थे (नीलयशालम्भ : पृ. १८३) । भरत जिस दिन सम्पूर्ण भारत के अधिपति हुए, उस दिन भी चौदह रत्नों और नौ निधियों ने उनकी वशंवदता स्वीकार की थी (पद्मालम्भ : पृ. २०२) । केवलोत्पत्ति मनुष्यत्व से देवत्व की ओर बढ़ने के प्रयास की सिद्धि का सूचक होती थी, इसलिए देवों का प्रसन्न होना, उनके द्वारा फूल बरसाना और ज्योति-महोत्सव या देवोद्योत का आयोजन करना स्वाभाविक था।