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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४०५ संघदासगणी ने अग्निमुख देवों की भी कल्पना की है । ये अग्निमुख देव इन्द्र के आज्ञावर्ती थे। ऋषभस्वामी के शव के अग्निसंस्कार के लिए रचित चिता में जो आग लगाई गई थी, उसे इन्हीं देवों ने अपने मुँह से उत्पन्न किया था, तभी ये अग्निमुख देव कहलाये (नीलयशालम्भ : पृ. १८५)। आभियोगिक देवों की चर्चा करते हुए कथाकार ने कहा है कि ये देव किंकरस्थानीय होते थे। ऋषभस्वामी के जन्मोत्सव के समय इन देवों ने अपनी विशिष्ट शक्ति से आठ योजन प्रमाण विमानों का विकुर्वण (परा-प्राकृतिक निर्माण किया था। उस गेहाकार (विशिष्ट घर) में, अधोलोक में रहनेवाली चलितासना दिक्कुमारियाँ उत्कृष्ट दिव्यगति से चलकर उपस्थित हुई थीं। वे दिक्कुमारियाँ सामानिक (इन्द्रतुल्य देवजाति-विशेष), महत्तरक, पार्षद, अनीक, आत्मरक्षक प्रभृति देवजातियों से परिवृत थीं। ये दिक्कुमारियाँ अनेक रूपों में, अनेक दिशाओं से आई थीं। इस क्रम में कथाकार ने लगभग छप्पन दिक्कुमारियों का नामत: उल्लेख किया है। ये जिन दिशाओं से जितनी संख्या में आई थीं, वे इस प्रकार हैं : अधोलोक से आठ, ऊर्ध्वलोक से आठ, पूर्वरुचक लोक से आठ, दक्षिणरुचक लोक से आठ, पश्चिमरुचक लोक से आठ, उत्तररुचक लोक से आठ, फिर रुचक विदिशा से चार विद्युत्कुमारियाँ और रुचक-लोक के मध्य से चार दिक्कुमारियाँ । इस प्रकार, ऋषभस्वामी के जन्मोत्सव के समय दिक्कुमारियों की भारी भीड़ जुट गई थी (तत्रैव : पृ. १५९-१६०)।
लोकान्तिक देवों की तो भूयश: चर्चा कथाकार ने की है। संसार-त्याग के लिए प्रतिबोधन करना ही इन देवों का मुख्य कार्य था (नीलयशालम्भ : पृ. १६१, १७१, १७६; केतुमतीलम्भ : ३३०, ३३५, ३४१, ३४५)। यमदेवी भरणी और अग्निदेवी कृत्तिका का भी उल्लेख कथाकार ने किया है। भरणी और कृत्तिका नक्षत्रों के योग में उत्पन्न होने के कारण ही वाराणसी के राजा अग्निशिखर के पुत्र का 'यमदग्नि' नाम रखा गया था (मदनवेगालम्भ : पृ. २३५)। उदधिकुमार क्षीरोदसागर के प्रभारी देव थे। ऋषभस्वामी के शवदाह के बाद उदधिकुमारों ने ही क्षीरोदसागर के जल से चिता बुझाई थी (नीलयशालम्भ : पृ. १८५) । इसी प्रकार, भूतवादी और ऋषिवादी देवों का भी उल्लेख कथाकार ने किया है। लक्ष्मण ने जब रामण (रावण) का वध किया था, तब ऋषिवादी और भूतवादी देवों ने आकाश से पुष्पवृष्टि की थी और लक्ष्मण के बारे में घोषणा की थी कि भारतवर्ष में यह आठवाँ वासुदेव के रूप में उत्पन्न हुआ है (मदनवेगालम्भ : पृ. २४५)।
नागराज धरण भवनपति देवों के अधिपति थे। नागराज धरण विद्याधरों द्वारा विद्याओं के प्रयोग के नियमों का निर्धारण और नियन्त्रण करते थे। सम्पूर्ण नागलोक इनका अनुयायी था। 'वसुदेवहिण्डी' में वर्णित दृष्टिविष ज्वलनप्रभ नाग और उसकी पत्नी नागी नागराज धरण के प्रति आन्तरिक श्रद्धाभाव से अभिभूत थे। यह नागराज धरण तीर्थंकर नाम-गोत्र से सम्पन्न थे। एक बार नागराज अपनी पलियों (रानियों) के साथ अष्टापद पर्वत पर साधु-वन्दना के निमित्त गये थे। वहाँ साधुओं ने उन्हें सुलभ बोधिवाला बताया और कहा कि वह वर्तमान इन्द्रत्व के भव से उद्वर्तित होकर, ऐरवतवर्ष में, अवसर्पिणी-काल में चौबीसवें तीर्थंकर होंगे। नागराज धरण की छह पटरानियाँ थीं : अल्ला, अक्का, शतेरा, सौत्रामणि, इन्द्रा और घनविद्युता। अल्ला ही अगले भव में श्रावस्ती के राजा एणिकपुत्र (एणीपुत्र) की पुत्री प्रियंगुसुन्दरी के रूप में उत्पन्न हुई, जो कथा के चरितनायक वसुदेव की पत्नी बनी । नागराज धरण पूर्वभव में मथुरा के यक्षिल नामक ब्राह्मण थे और उनकी प्रधानमहिषी अल्ला मथुरा के ही सोमनामक ब्राह्मण की पुत्री गंगश्री थी, जिसने अपने बेटे एणीपुत्र की पुत्री (प्रियंगुसुन्दरी) के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३०५)।