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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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आदित्य । सूर्यमण्डल के अधिष्ठाता देवता का इन्द्र शब्द से बहुधा व्यवहार किया गया है। अन्य समस्त देवता इनके ही अवान्तर भेद हैं। इन देवताओं की स्तुति वेदमन्त्रों में भूयिष्ठ भाव से प्राप्त होती है।
श्रमण-परम्परा में भी इन्द्र की कल्पना देवों के अधिपति के रूप में की गई है। जैनागम के शीर्षग्रन्थ 'स्थानांग' में इन्द्र का विशद विवरण उपलब्ध होता है। तृतीय स्थान के प्रथम उद्देश में नौ इन्द्रों के नाम उल्लिखित हैं: नामेन्द्र, स्थापनेन्द्र, द्रव्येन्द्र, ज्ञानेन्द्र, दर्शनेन्द्र, चरित्रेन्द्र, देवेन्द्र, असुरेन्द्र
और मनुष्येन्द्र । पुन: द्वितीय स्थान (सूत्र-सं. ३५३-३८४) में चौंसठ इन्द्रों की नामावली दी गयी है। आगमविद् कथाकार संघदासगणी द्वारा कथा के विभिन्न प्रसंगों में वर्णित इन्द्र इसी जैनागम से गृहीत हुए हैं । कथाकार द्वारा उल्लिखित इन्द्रों के नाम इस प्रकार हैं: अच्युतेन्द्र (बारहवें देवलोक का अधिपति; नीलयशा. पृ. १६१, केतुमती. पृ. ३२९); ईशानेन्द्र (द्वितीय कल्प का अधिपति; केतुमती. पृ. ३२९, ३३१, ३३८, ३३९); अहमिन्द्र (केतुमती. पृ. २३४); चमरेन्द्र (असुरेन्द्र; बन्धुमती. पृ. २७५, केतुमती. पृ. ३२४); धरणेन्द्र (नागों का इन्द्र; प्रियंगु, पृ. १६३, १९२, २५२, २६४ आदि); ब्रह्मेन्द्र (पंचम कल्प का अधिपति; कथोत्पत्ति : पृ. २०, २५; प्रियंगु, पृ. २८७); लान्तकेन्द्र (षष्ठ कल्प का अधिपति; नीलयशा. पृ. १७५) और सौधर्मेन्द्र (सौधर्म लोक का अधिपति; प्रियंगु. पृ. २८६) । इनके अतिरिक्त सामान्य इन्द्र का भी उल्लेख हुआ है । प्रत्येक देवलोक और देव-विमान के लिए भी अलग-अलग इन्द्र हैं।
___ 'वसुदेवहिण्डी' से यह ज्ञात होता है कि श्रमण-परम्परा में भी इन्द्र के सहस्रनयन होने की परिकल्पना मान्य थी। अच्युतेन्द्र आदि सभी इन्द्र, केवलज्ञानियों, सिद्धों, तीर्थंकरों आदि के जन्म, राज्याभिषेक, ज्ञानोत्पत्ति-महिमा आदि उत्सवों के कार्यों में अधिक अभिरुचि लेते थे। ऋषभस्वामी के जन्मोत्सव के समय पहले ज्योतिर्मय पालक विमान के अधिपति देवराज इन्द्र तीर्थंकर की भूमि में पधारे थे। कथा है कि उनके आगमन के समय सारा आकाश उद्भासित हो गया। उन्होंने जिनमाता मरुदेवी की श्रुतिमनोहर वाणी से स्तुति की। वह अवस्वापिनी आदि विद्याओं
और विकुर्वण की शक्ति से सम्पन्न थे। वह नवजात तीर्थंकर को अपने पँचरंगे करकमलों के बीच अच्छी तरह रखकर क्षणभर में ही अतिपाण्डुकम्बलशिला पर ले गये और वहाँ उन्हें शाश्वत सिंहासन पर बैठाया।
तदनन्तर बारहवें देवलोक के स्वामी अच्युतेन्द्र ने जिनेन्द्र को क्षीरोदसागर के जल से परिपूर्ण साठ हजार स्वर्णकलशों से स्नान कराया। उसके बाद क्रम से सौषधिमिश्रित जल तथा तीर्थों के जल से भी अभिषेक कराया। फिर तीर्थंकर को वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत किया। पुनः उन्होंने स्वस्तिक लिखे और सुगन्धित धूप जलाया। उसके बाद स्तुति करके पर्युपासना में लग गये। अच्युतेन्द्र से ही प्रेरित होकर दसवें प्राणत देवलोक के इन्द्र एवं अन्यान्य इन्द्रों ने भी वहाँ आकर तीर्थकर की वन्दना की (नीलयशालम्भ : पृ. १६१)।
ऋषभस्वामी के राज्याभिषेक के समय भी लोकपाल-सहित इन्द्र आये थे । इन्द्र ने ही यक्षराज कुबेर को आदेश देकर ऋषभस्वामी की विनीत प्रजाओं के लिए विनीता (अयोध्या) नगरी का निर्माण कराया था। ऋषभ तीर्थंकर के जन्मोत्सव की समाप्ति के बाद इन्द्र जब वापस जाने लगे थे, तब उन्होंने तीर्थंकर के सिरहाने में एक जोड़ा रेशमी वस्त्र और कुण्डल रख दिया था तथा सर्वविघ्न-शमनकारी