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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
श्रीसम्पन्न अम्लान फूल की मालाएँ, भवन की छत से लटका दी थीं। भविष्य में भी तीर्थंकर की रक्षा के निमित्त अपनी सेवा अर्पित करने की घोषणा इन्द्र ने की थी । इन्द्र के ही निर्देशानुसार पल्योपम-स्थित देव, भगवान् ऋषभदेव का पालन-पोषण करते थे । भगवान् तीर्थंकर, इन्द्र के द्वारा प्रदत्त, कुरुदेश में उत्पन्न फल का रस आहार में लेते थे (तत्रैव : पृ. १६१-१६२) ।
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संसार के परित्याग के लिए, जो जीव जिस इन्द्र से प्रतिबोधित होता था, वह, देहत्याग के बाद उसी इन्द्र के कल्प में देवत्व प्राप्त करता था । अच्युतेन्द्र द्वारा प्रतिबोधित राजा मेघनाद देहभेद के समय अच्युत कल्प में ही देवत्व - पद पर प्रतिष्ठित हुआ था (केतुमतीलम्भ: पृ. ३२९) । ईशानेन्द्र को श्रेष्ठ तपस्वियों के गुण-कीर्त्तन में तत्पर देव के रूप में कथाकार द्वारा चित्रित किया गया है। तपस्वी मेघरथ के बारे में ईशानेन्द्र ने बीच सभा में उसका गुण-कीर्त्तन करते हुए घोषणा की थी कि इन्द्रसहित देवों में कोई भी मेघरथ को धर्म से विचलित नहीं कर सकता (तत्रैव : पृ. ३३८ ) ।
कथाकार ने पंचम कल्प के अधिपति ब्रह्मेन्द्र की अनेकशः चर्चा की है। ब्रह्मेन्द्र - लोक से च्युत होकर मनुष्य-लोक में आने और मनुष्य-लोकवासी के तप द्वारा ब्रह्मेन्द्र हो जाने की परम्परा भी थी । ब्रह्मेन्द्र इन्द्रकल्प से च्युत होकर दक्षिणार्द्ध भरत के साकेतनगर में राजा गरुडवाहन हरिवाहन नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २८७) । इसी प्रकार, तपोबल से सम्पन्न राजपुत्र शिवकुमार ब्रह्मलोक का इन्द्र हो गया था और उसकी अंगज्योति ब्रह्मेन्द्र के समान ही हो गई थी (कथोत्पत्ति : पृ. २५) । लान्तक - कल्पवासी लान्तकेन्द्र भी मनुष्यों के रक्षक और प्रतिबोधक के रूप में कथाकार द्वारा चित्रित किये गये हैं (नीलयशालम्भ : पृ. १७५) । मनुष्य-भव के तपस्वी पुरुष ही कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त करने के बाद सौधर्मेन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित होते थे ।
अहमिन्द्र भी इन्द्र का ही भेद था। उत्तम श्रेणी के या ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के निवासी पूर्ण स्वाधीन देवजाति- विशेष की संज्ञा अहमिन्द्र थी । 'चक्रवर्ती राजा भी अपने को अहमिन्द्र (अहम् + इन्द्रः) मानते थे । 'वसुदेवहिण्डी' में भी इन्द्र से चक्रवर्ती की उच्चता सिद्ध की गई है। इन्द्र के प्रश्न के उत्तर में ऋषभस्वामी ने कहा था: राजा के चक्रवर्ती-पद के भोगकाल में इन्द्र का अधिकार नहीं चलता है, फिर चक्रवर्त्ती- पद से रहित अवधि में इन्द्र का ही प्रभाव रहता है : (" भयवया भणियं - चक्कवट्टिभोयकाले न पभवति इंदो, चक्कवट्टिविरहे पुण पभवइ त्ति", नीलयशालम्भ: पृ. १८३) । चक्रवर्ती राजाओं के अतिरिक्त भी परिषह - सहन तथा समाधिमरण द्वारा इन्द्रत्व प्राप्त करनेवाले अन्य अनेक राजाओं का रम्य रुचिर वर्णन कथाकार ने किया है ।
बहुदेववादी कथाकार संघदासगणी ने अपनी महत्कथा में इन्द्र के अतिरिक्त उनके अधीनस्थ अनेक देव-देवियों का चित्रण किया है, जिनका विवेचन अपने आपमें एक महाप्रबन्ध का विषय है । यहाँ मानव-संस्कृति से अनुबद्ध कतिपय आनुषंगिक देव देवियों के विषय में दिग्दर्शन कराना अपेक्षित है ।
जैनागम ('स्थानांग', 'प्रज्ञापना' आदि) के अनुसार, देव चार प्रकार के होते है: वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति और व्यन्तर । ऋषभस्वामी के जन्मोत्सव के अवसर पर उक्त चारों प्रकार के देव आये थे ('चउव्विहदेववंदकयसण्णेज्यं भयवंतं; नीलयशालम्भ: पृ. १६१) । शान्तिस्वामी को जिस समय केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था, उस समय भी उनके धर्मचक्र में सम्मिलित होने के निमित्त