SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ३९३ स्वर्ग : भारतीय सांस्कृतिक जीवन में नरक के साथ ही स्वर्ग की कल्पना भी अनुस्यूत है । नरक और स्वर्ग में विश्वास सम्पूर्ण भारतीय जनजीवन का अन्यत्रदुर्लभ वैशिष्ट्य है । इस सन्दर्भ में 'विष्णुपुराण' की यह उक्ति भूयश: आवृत होती रहती है : : गायन्ति देवाः किल गीतिकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे । स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषः सुरत्वात् ॥ ( अंश २ अध्याय ३, श्लोक २४) अर्थात्, यह कर्मभूमि भारतवर्ष अत्यन्त धन्य है, जिसकी महिमा देवता भी गाते हैं; क्योंकि यहाँ स्वर्ग और मोक्ष जैसी सर्वोच्च गतियों को सत्कर्म करके की प्राप्त किया जा सकता है और मनुष्य, देवलोक में रहने के बाद भी पुन: इस धरती पर आते हैं तथा अपने पौरुष से देवत्व के अधिकारी बनते हैं । इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि पुरुषार्थ-चतुष्टय की सिद्धि में कुशल मनुष्य के लिए स्वर्ग भी स्वायत्त हो जाता है 1 ब्राह्मण-परम्परा की भाँति श्रमण- परम्परा में भी स्वर्ग की भूरिशः चर्चा हुई है । 'स्थानांग ' आदि जैनागमों में ऊर्ध्वलोंक, यानी स्वर्गलोक का बड़ी सूक्ष्मता से उसके भेदोपभेदों के साथ, वर्णन मिलता है । करणानुयोग के प्रसिद्ध प्राचीनतम ग्रन्थ 'तिलोयण्णत्ति' में तो त्रैलोक्य-सम्बन्धी समस्त विषयों का परिपूर्ण और सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है। संघदासगणी का स्वर्ग-वर्णन भी इन्हीं आगम-ग्रन्थों पर आधृत है । जैनागम' के अनुसार, ऊर्ध्वलोक में पहले ज्योतिर्लोक आता है, जिसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि की स्थिति बताई गई है । इनके ऊपर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तक, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत सोलह स्वर्ग हैं । इन्हें कल्प भी कहते हैं। क्योंकि, इनमें रहनेवाले देव इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक इन दस उत्तरोत्तर हीन पद-रूप कल्पों या भेदों में विभक्त हैं। ज्ञातव्य है कि जैनागमों को 'स्वर्ग' की अपेक्षा 'कल्प' या 'देवलोक' का प्रयोग ही अधिक अभीप्सित रहा है । अतएव, कथाकार ने भी स्वर्ग के अर्थ में प्राय: 'कल्प' शब्द का ही सार्वत्रिक प्रयोग किया है। उक्त सोलह स्वर्गों के ऊपर नौ ग्रैवेयक और उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच कल्पातीत देव- विमान हैं । सर्वार्थसिद्धि के ऊपर लोक का अग्रतम भाग यानी निर्वाणभूमि है, जहाँ मुक्तात्माएँ जाकर रहती हैं। इसे ही गीता में परमधाम या मुक्तिधाम कहा गया है । परमधाम की परिभाषा में कहा गया है कि स्वयम्प्रकाशित उस लोक में चन्द्र, सूर्य, और अग्नि के प्रका की आवश्यकता नहीं होती और वहाँ जाकर संसार में पुन: लौटना नहीं होता । १. ‘स्थानांग’ (४. ६४९-५१) में बारह स्वर्गों का उल्लेख है, जिनमें अधस्तन चार (सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र), मध्यम चार (ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार) तथा उपरितन चार ( आनत, प्राणत, आरण और अच्युत) ये कुल १२ स्वर्ग हैं। २. द्र. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. ९४ ३. न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः । यद् गत्वा न निवर्त्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ - गीता : १५ . ६
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy