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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा कथाकार ने नरक की सातवीं पृथ्वी (महातमा) का भी वर्णन किया है । चौदहवें मदनवेगालम्भ (पृ. २४०) की कथा है कि सुभौम ने जब चक्रवर्ती-रत्नों का परित्याग कर दिया, तब देवलोक-निवासी चित्रसेन ने पूर्वभव के राजवैर का स्मरण करके उसे समुद्र में डुबाकर मार डाला । चूँकि सुभौम ने कामभोग का त्याग नहीं किया था, इसलिए वह मरकर सातवीं नरकभूमि में चला गया। इसी प्रकार, नारकी अजगर (पूर्वभव का श्रीभूति पुरोहित) पाँचवीं पृथ्वी से उद्वर्तित होकर, चक्रपुरनगर में दारुण नामक शौकरिक (कसाई) की कष्टा नाम की पत्नी से अतिकष्ट नामक बालक के रूप में उत्पन्न हुआ। निरन्तर जीवहत्या के कारण अतिकष्ट ने बहुत पाप अर्जित किया और जंगली आग की लपटों में झुलस जाने से उसकी मृत्यु हुई। मरकर वह सातवीं पृथ्वी (महातमा नरक) में तैंतीस सागरोपम कालावधि तक के लिए नारकी हो गया, जहाँ वह अतिशय शीतवेदना से अभिभूत रहने की विवशता झेलते हुए बहुत दु:ख के साथ समय बिताने लगा (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २६१) । इस कथा से स्पष्ट है कि महातमा नरक में घोर अन्धकार तो रहता ही है, अतिशय ठण्ड के कारण भी नारकियों को भयानक कष्ट भोगना पड़ता है।
कथाकार ने सर्पावर्त का अतिशय कष्टकारक नरकावास के रूप में वर्णन किया है। पीठिका-प्रकरण (पृ. ८९) में एक कथा है कि हस्तिनापुर में पुण्यभद्र और मणिभद्र नाम के दो भाई थे। दोनों महेन्द्र साधु की वन्दना के लिए प्रस्थित हुए। रास्ते में उन्हें, कन्धे से पंछी का पिंजरा लटकाये एक चण्डाल दिखाई पड़ा, जिसके पीछे-पीछे पिंगला नाम की एक कुतिया चल रही थी। दोनों भाइयों को चण्डाल और कुतिया पर अकारण स्नेह उमड़ आया। तब उन्होंने इसके बारे में साधु से प्रश्न किया। साधु ने उन्हें बताया कि पूर्वभव में चण्डाल और कुतिया उन दोनों भाइयों के माता-पिता थे, जो बहुत पाप अर्जित करके मरने पर सर्पावत नामक नरक में पाँच पल्योपम काल तक दुःख अनुभव करते रहे और वहाँ से फिर दूसरी गति में जन्म लेकर हस्तिनापुर आये थे।
इस प्रकार, कथाकार द्वारा वर्णित विभिन्न नरकों की स्थिति से यह स्पष्ट है कि हिंसाग्रस्त पापियों को नरक-निवास का अनन्त कष्ट भोगना पड़ता है। नरकपाल उन्हें दुःख में डालकर उनके साथ अनवरत क्रूर क्रीडा करते हैं और उन्हें निरन्तर दुःख भोगने को विवश करते रहते हैं। इसीलिए, कथाकार ने जगह-जगह मुनियों से यह उपदेश दिलवाया है कि परलोक में सद्गति प्राप्त करने के निमित्त मनुष्य के लिए शुभकर्म का आचरण अनिवार्य है । कथाकार द्वारा नरकभोग के कारणों में कर्म को ततोऽधिक प्रधानता दिये जाने का आशय यही है कि मनुष्य को ज्ञात या अज्ञात अवस्था में किये गये अपने अशुभ कर्म का अशुभ परिणाम या नरकभोग भोगना ही पड़ता है। 'गरुडपुराण' में भी नरकभोग के परिणाम से बचने के लिए सामान्य तथा विशेष नैतिक और धार्मिक नियमों के पालन करने के रूप में सत्कर्म या सदाचार और फिर सत्संग पर अधिक बल दिया गया है। 'मार्कण्डेयपुराण' में भी मृत प्राणियों के आवागमन की जो कथाएँ दी गई हैं, उनमें नरकों का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है। विभिन्न तिर्यक्-योनियों या वनस्पति-जीवों में परिभ्रमण भी एक प्रकार का नरकावास ही माना गया है। ‘गरुडपुराण' में नरकों की संख्या चौरासी लाख बताई गई है। अन्य पुराणों में भी योनियों की संख्या चौरासी लाख कही गई है। इसी से यह अनुमान होता है कि 'गरुडपुराण' ने चौरासी लाख योनियों में जीवन के भ्रमण करने का ही वर्णन चौरासी लाख नरकों के रूप में किया है।