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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा संघदासगणी ने आगमवर्णित उक्त सोलह स्वर्गों में आठ स्वर्गों का नामत: उल्लेख किया है। जैसे: अच्युत, आरण, ईशान, प्राणत, ब्रह्मलोक, महाशुक्र, लान्तक और सौधर्म । इन स्वर्गों के अतिरिक्त लगभग पच्चीस देव-विमानों की चर्चा भी कथाकार ने की है और स्वर्गोत्तर लोकों में ग्रैंवेयक तथा कल्पातीत देव-विमानों में सर्वार्थसिद्ध या सर्वार्थसिद्धि को भी अपने कथाप्रसंग में समेटा है। उदाहरणार्थ, उक्त आठों स्वर्गों के दो-एक सन्दर्भ यहाँ उपन्यस्त किये जा रहे हैं। ___अच्युत स्वर्ग की प्राप्ति पण्डितमरण द्वारा होती थी। कथा है कि धम्मिल्ल ने धर्मरुचि साधु के चरणों में दीक्षित होकर ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया और अनेक वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करते हुए मासिकी संलेखना से अपने को निर्मल बनाया, फिर साठ दिनों के उपवास . द्वारा पण्डितमरण प्राप्त कर वह बारहवें अच्युत कल्प में देवेन्द्र की तरह बाईस सागर तक की अवधि के लिए देवत्व-पद पर प्रतिष्ठित हो गया (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ७६) ।
सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली के सेनापति अपराजित के दस पुत्रों में नौ पुत्र बहुत पाप अर्जित करने के कारण सातवीं पृथ्वी पर नारकी हो गये। वहाँ से गत्यन्तर प्राप्त करके उन्होंने जल, स्थल
और आकाशचारी चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय तिर्यग्योनियों में जन्म ग्रहण किया और वहाँ के दुःखों को भोगकर साधारण (अनेक जीवोंवाले कन्द आदि) और बादर (स्थूल) वनस्पतियों में उत्पन्न हुए। वनस्पति-योनियों में बहुत दिनों तक वास करने के बाद अपने कर्मसंचय को क्षीण करके वे भद्रिलपुर के राजा मेघरथ के शासनकाल में धनमित्र श्रेष्ठी के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए और अपने पिता के साथ इन नवों पुत्रों ने मन्दर साधु के निकट शीतलनाथ जिनदेव की जन्मभूमि पर प्रव्रज्या ले ली। अन्त में, वे अच्युत नामक स्वर्ग में देवता हो गये (श्यामा-विजयालम्भ : पृ. ११४) ।
आरण ग्यारहवाँ स्वर्ग है । अनन्तवीर्य के भाई अपराजित ने यशोधर गणधर के समीप प्रव्रज्या लेकर बहुत दिनों तक तप किया था और देह-वियोग होने पर आरण कल्प में सुरेन्द्र हो गया था (केतुमतीलम्भ : पृ. ३२९)। ईशान दूसरे स्वर्ग का नाम है, जिसके मध्यदेश में, उत्तरपश्चिम दिशा में श्रीप्रभ नाम का देव-विमान है। वहाँ ललितांगद नाम के देव का निवास था (नीलयशालम्भ : पृ. १६६) । एक बार वहाँ दृढ़धर्म नाम का देव ललितांगद देव से मिलने आया था (तत्रैव : पृ. १७१) ।
प्राणत दसवें स्वर्ग का नाम है । राजा अमिततेज और श्रीविजय निष्क्रमण करके अभिनन्दन और जगनन्दन साधु के निकट प्रायोपगमन-विधि से मृत्यु का वरण कर प्राणत कल्प के नन्दावर्त्त-स्वस्तिक देव-विमान में दिव्यचूड और मणिचूड नाम के देव हो गये (केतुमतीलम्भ : पृ. ३२४) । ब्रह्मलोक पाँचवें स्वर्ग की संज्ञा है। इसकी चर्चा कथाकार ने बार-बार की है। जम्ब पहले ब्रह्मलोक का देव था। वहाँ से च्युत होकर वह अपनी माता धारिणी के गर्भ में आया था (कथोत्पत्ति: पृ. ३) । वीतशोका नगरी के राजा पद्मरथ का पत्र शिवकमार समाधि द्वारा देह का त्याग कर ब्रह्मलोक में इन्द्रतल्य देव हआ था (तत्रैव : पृ. २५) । महाबल का पितामह राज्यश्री का परित्याग कर व्रतचारी हो गया था, जिससे मृत्यु के बाद उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई थी (नीलयशालम्भ : पृ. १६९)। इसी प्रकार, कथाकार ने महाशुक्र (सातवाँ स्वर्ग), लान्तक (छठा स्वर्ग) और सौधर्म (पहला स्वर्ग) की भी बड़ी सघन-भूयिष्ठ चर्चा उपस्थित की है । दो-एक सन्दर्भ द्रष्टव्य हैं :
सोमश्री ने अपने परिचय के क्रम में प्रतिहारी से स्वर्ग के स्वानुभूत सुख का अद्भुत और मनोरम वर्णन करते हुए कहा है कि वह पिछले जन्म में सौधर्म कल्प (स्वर्ग) के