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वसदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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को विवश होना पड़ता है। 'स्थानांग' में नरक को ही अधोलोक कहा गया है, जहाँ चार प्रकार के अन्धकार रहते हैं : नरक, नैरयिक, पापकर्म और अशुभ पुद्गल (४.५०६)। आगमानुसार, संघदासगणी ने अधोलोक, यानी नरक की ओर उत्तरोत्तर नीचे जानेवाली सात पृथ्वियों या भूमियों की चर्चा कथाप्रसंगवश की है। ये सातों भूमियाँ इस प्रकार हैं : रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, तमतमा और महातमा। कथाकार ने सातों नरकभूमियों का उल्लेख करने के क्रम में पाँच नरकों का नामत: वर्णन किया है। जैसे अप्रतिष्ठान, तमतमा, रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और सर्पावर्त । इसी प्रसंग में कथाकार ने नरक, यानी यमलोक के समष्ट्यात्मक स्वरूप का अतिशय लोमहर्षक चित्रण किया है, जो संक्षेपत: इस प्रकार है :
सुनने में भी प्रतिकूल लगनेवाले सारे नरक अमावस की रात की भाँति अन्धकारपूर्ण होते हैं; भयजनित रुदन और प्रलाप से भरे होते हैं; वहाँ सड़ी हुई लाश की बदबू फैलती रहती है; नरकों की भूमि बिच्छू के डंक के समान दुःसह और कर्कश स्पर्शवाली तथा दुर्गम होती है, जहाँ नारकी पुरुष नाम, आयु और अव्यक्त मनुष्यदेह तथा उस भव के योग्य पाँच पर्याप्तियों को प्राप्त कर पाप के उपलेप से मलिन तथा असह्य ठण्डक, गरमी, प्यास, भूख और वेदना से छटपटाते हुए दीर्घकाल तक दुःख भोगते हैं। गहन अन्धकार से भरे एक नरक से दूसरे नरक में भटकते हुए नारकी जीवों का जब आपस में स्पर्श होता है या भयंकर आवाज होती है, तभी वे समझते हैं कि दूसरे भी यहाँ हैं । तीर्थंकरों के जन्म, निष्क्रमण और केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय जब शुभ पुद्गल-परिणाम से सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है, तभी नारकी पुरुष एक दूसरे को देख पाते हैं। अवधिज्ञान के कारण पूर्वजन्म के वैरानुबन्ध का स्मरण हो आने से नरकवासी एक दूसरे को देखकर भाला, लाठी, गुलेल, तीर, मूसल आदि विकुर्वित कर परस्पर प्रहार करते हैं। प्रहार से शरीर के विदीर्ण हो जाने पर वे मूर्च्छित हो जाते हैं, फिर क्षणभर में ही प्रकृतिस्थ होकर एक दूसरे को नाखूनों से नोचते और दाँतों से काटते हैं और अमर्ष से जलते हुए वे एक दूसरे का वध करते हैं।
प्रतिधर्मी असुर भी, दूसरे के वध से हर्षित होकर नारकीय आवास में पहुँचकर खेलने की चेष्टा करते हैं-मांस के लोभवश मृत मनुष्य के शव को कतरनी द्वारा अनेक प्रकार से काटते हैं और फिर मांसखण्डों को सीसे और सोने-चाँदी आदि रसायन के खौलते हुए रस में पकाते हैं।
परकी को व्यथित करते हैं। चीखते-चिल्लाते दुष्ट हत्यारे नारकी उन असुरों से अपना दुःख कहते हैं, फिर भी वे असुर, दीन भाव से किलकिलाते हुए नारकी जीवों को लोहे की तीखी कीलों से भरे क्रोधनक और कूटशाल्मलि के पेड़ों पर लटका देते हैं और ऐसी दुःखात स्थिति में नारकी जब विलाप करने लगते हैं, तब नरकपाल उन्हें बाहर खींच लाते हैं और खिसियाते हुए वे, उन्हें खारे पानी से भरी, हरे-भरे रमणीय पेड़ों से सुशोभित तटवाली वैतरणी नदी का मिथ्या दर्शन कराते हैं और कहते है : 'ठण्डा पानी पीओ।' यह सुनकर तुष्टि का अनुभव १. असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा वृताः।।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥(मन्त्र ३) २. गरुडपुराण में भी सात पातालों (अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत, महाख्य, सुतल, और अग्र्य) और उनकी
सात भूमियों (कृष्णा, शुक्ला, अरुणा, पीता, शर्करा, शैला और कांचना) का उल्लेख है। द्र. पूर्वार्द्ध, पातालनरकादिवर्णन,प्रकरण २९ । ३. तुलना के लिए द्रष्टव्य गरुडपुराणोक्त यमलोकविवरण, उत्तरार्द्ध, प्रेतकल्प, प्रकरण २३