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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा करते हुए दुर्बल गतिवाले पूर्वजन्म की दुष्कृति के भोक्ता नारकी जीवों को वे नरकपाल खारे पानी से भरी वैतरणी नदी में फेंक देते हैं।
पुन: वे नरकपाल नारकी जीवों को असिपत्रासुर द्वारा निर्मित नयनमनोहर असिपत्रवन दिखलाते हैं। दीपशिखा के चारों और नाचते पतंगों की भाँति नारकी जीव असिपत्रवन के, तीखी तलवार और नुकीले त्रिशूल जैसे पत्ते के चारों ओर चक्कर काटते हैं। असिपत्रवन में प्रवेश करते ही तत्क्षण नारकी जीवों पर दुःखदायक अभिघात होने लगता है। हवा के झोंके से गिरते पत्तों से उनके शरीर कट जाते हैं, फलत: वे अनाथता का अनुभव करते हुए चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगते हैं। इसके अतिरिक्त, श्याम और शबल नाम के प्रतिधर्मी, ‘एक पैरवाले', भयंकराकृति कौए
और बगुले उत्पन्न कर वे नरकपाल नारकी के शरीर की खींचतान कराते हैं। ‘स्वामी ! बचाओ' इस प्रकार चिल्लाते हुए नारकी जीवों को वे नरकपाल कलम्बुबालुका (नरक की नदी की गरम बालू) पर लोटने को बाध्य करते हैं और हँसते हुए वे (नरकपाल) आग उत्पन्न कर, उसकी ज्वाला में नरकवासियों को झुलसाते हैं तथा परस्त्रीलम्पट नारकियों से वे स्वनिर्मित अग्निमयी स्त्रियों का आलिंगन कराते हैं (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७०)।
आगमिक मूल्यों को आदर देनेवाले अधीती कथाकार ने यथाप्रस्तुत नरक के स्वरूपनिरूपण में आतंककारी नरक की विभीषिका का व्यतिरेकी चित्र तो उपस्थित किया ही है, वर्णन की शैली में भी. उसकी बिम्बविधायिनी प्रतिभा और विषयानुरूप सन्दर्भ की औचित्यपूर्ण परिकल्पना का ततोऽधिक श्लाघनीय उद्भावन हुआ है।
कथाकार द्वारा कथाप्रसंग में 'अप्रतिष्ठान' नरक की चर्चा की गई है। प्रसंग से ऐसा ज्ञात होता है कि पूजा के निमित्त न्यस्त धन का अपहरण करनेवाला और निरन्तर रौद्रध्यान (हिंसा आदि क्रूर कर्म का चिन्ता) में लीन रहनेवाला अप्रतिष्ठान नरक का भागी होता था। अपने बालवयस्य सुरेन्द्रदत्त से चैत्यपूजा के निमित्त प्राप्त धन को रुद्रदत्त ब्राह्मण ने जूआ और वेश्याप्रसंग में नष्ट कर दिया था, इसलिए उसका मोक्षमार्ग अवरुद्ध हो गया और वह दर्शनमोहनीय कर्म (तत्त्वश्रद्धा का प्रतिबन्धक कर्म) से उत्पन्न दीर्घकालीन दुःखानुभूति और रौद्रध्यान में लीन रहने के कारण अप्रतिष्ठान नरक का भागी हुआ, जहाँ उसे अविराम दुःख का अनुभव करना पड़ा (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. ११३)। इसी प्रकार, अप्रतिष्ठान नरक की चर्चा में एक और कथाप्रसंग है। अचल (बलदेव का रूप) ने जब सुवर्णकुम्भ साधु से अपने मृत भाई त्रिपृष्ठ की गति के बारे में पूछा, तब साधु ने बताया कि त्रिपृष्ठ ने आस्रव (कर्मबन्ध) के द्वार को न रोक पाने तथा अतिशय रौद्र अध्यवसाय में आसक्त रहने के कारण अनेक असातावेदनीय कर्म (दुःख के कारणभूत कर्म) अर्जित करके नरक का आयुष्य प्राप्त किया है, फलतः वह 'अप्रतिष्ठान' नामक नरक में उत्पन्न हुआ है, जहाँ वह अपार अशुभ कष्ट भोग रहा है (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१५) ।
___ अधोलोक की छठी भूमि पर तमतमा नरक है। कथाकार ने तमतमा नरक का भी वर्णन किया है। कथा है कि महाहिंसा, परिग्रह और असयंम में लिप्त तथा कामभोग के प्रति आग्रहशील राजा अश्वग्रीव अपने अमात्य हरिश्मश्रु के नास्तिकवादी मत से पाप संचित करके