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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३८७ करनेवाला) और दर्पणीय (दर्प या पुष्टि प्रदान करनेवाला) । 'वसुदेवहिण्डी' में कथाकार ने प्राय: इसी प्रकार की भोज्य-सामग्री का वर्णन किया है।
अगडदत्त ने जंगल में वनहस्तियों द्वारा विद्रावित सार्थों के भाग जाने का अनुमान किया था। भागते समय वे जिन तैयार भोज्य पदार्थों को छोड़ गये थे, उनमें समिति (मैदे की बनी हुई पूरी जैसी वस्तु), चावल (भात), उड़द की बनी हुई सामग्री तथा घी की फूटी हुई हाँड़ी और भात की थाली भी थी (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४४) । इससे स्पष्ट है कि उस समय के लोग घृतबहुल आटा, चावल और उड़द की बनी सामग्री थाली में रखकर भोजन करते थे, और निश्चय ही, ये सभी भोज्य पदार्थ 'स्थानांग' में वर्णित भोजन के परिणाम-प्रकारों का प्रतिनिधित्व करनेवाले हैं।
उस समय के भोजनों में अनेक प्रकार के खाद्य, भोज्य और पेय पदार्थ सम्मिलित रहते थे और भोजन भी बड़े विधि-विधान के साथ किया जाता था। धम्मिल्ल जन विविध वसन-आभूषणों से सज्जित होकर युवराज एवं ललितगोष्ठी के अन्य सदस्यों के साथ उद्यान-यात्रा पर गया था, तब वहाँ किंकरों ने अपूर्व पटमण्डप खड़ा किया और कनातं (प्रा. 'पडिसर') का घेरा डाल दिया। कुलवधुओं के शयन के योग्य बिछावन बिछाये गये। युवराज की आज्ञा से सुन्दर भूमिभाग में भोजन-मण्डप तैयार किया गया। टोकरियों से फूल बिखेरे गये । यथायोग्य आसन तैयार किये गये। गन्ध, वस्त्र, आभूषण और माला से सजे गोष्ठी के सदस्य अपने-अपने वैभव का प्रदर्शन करते हुए यथानिर्दिष्ट मणिनिर्मित आसन पर बैठे। सुवर्ण, रल और मणि से निर्मित बरतन सबको दिये गये। धम्मिल्ल भी अपनी प्रिया विमलसेना के साथ बैठा और
सेना भी उनकी बगल में ही बैठी। सबके हाथ धो लेने पर नानाविध खाद्य भोज्य और पेय परोसे गये। सभी परस्पर विशेष प्रीति अनुभव कर रहे थे। भोजन के बाद मदविह्वल युवतियों ने गीत-वाद्य के साथ नृत्य प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के अन्त में गोष्ठी के सदस्यों-सहित युवराज, धम्मिल्ल का अभिनन्दन करता हुआ उठा और सभी अपने-अपने यान-वाहन पर सवार होकर घर की ओर चल पड़े (तत्रैव : पृ. ६४)। निश्चय ही, यह सांस्कृतिक कार्यक्रम आधुनिक 'पिकनिक' की प्रथा की अतिशय समृद्ध और कलारुचिर पूर्व-परम्परा की ओर संकेत करता है। ___ संघदासगणी-कृत भोजन-सामग्री के वर्णन से यह स्पष्ट है कि उस युग के भोज्यानों में गेहूँ
और चावल की ही प्रधानता रहती थी। घी का सेवन प्रचुर मात्रा में होता था। उस समय ‘कांकटुक' (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४३) नामक एक निषिद्ध अन्न भी होता था। 'प्राकृतशब्दमहार्णव' के अनुसार, यह अन्न कंकड़ की भाँति दुर्भेद्य माष या उड़द जाति का अन्न था, जो कभी सिद्ध नहीं होता था। कथाकार ने दुस्साध्य या दुष्पाच्य कर्मविपाक की तुलना में कांकटुक अन्न का उपमान के रूप में प्रयोग किया है। उस युग में मिठाइयों में लड्डू और घेबर (घयपुर < घृतपूर : मदनवेगालम्भःपृ. २३९) का विशेष प्रचलन था। घेबर ताई (ताविका; तत्रैव) में घी डालकर पकाया जाता था ('घयपुण्णा ताविगाए पचिउमारद्धा' : तत्रैव) रसोइए को प्रीतिदान या तुष्टिदान (आधुनिक अर्थ में 'टिप्स) देने की भी प्रथा थी ('सयसहस्सं च मे तुहिदाणं दाहिति त्ति'; पुण्ड्रालम्भ पृ. २११) ।
इस प्रकार, कथाकार ने अपनी महत्कथा में तद्युगीन भोजन-सामग्री का बड़ा रुचिर वर्णन उपन्यस्त किया है। कथाकार द्वारा वर्णित भोजन-सामग्री और भोजन-मण्डप से तत्कालीन