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वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
की गई मांसरस से चित्ररसवृक्ष के सिंचित होने की कल्पना परम अद्भुत है। इसीलिए जैनागम (स्थानांग : १०.१६०) में हरिवंश-कुल की उत्पत्ति को दस आश्चर्यों में गिना गया है। __कथाकार ने कमल के फूलों, कदलीवृक्ष और कुसुमित अशोकवृक्षों का तो बार-बार वर्णन किया है, किन्तु, चैत्यवृक्ष के सन्दर्भ में रक्ताशोक की अधिक चर्चा की है और इसे कल्पवृक्ष के समान कहा है। श्रमण-संस्कृति में चैत्य शब्द जिनालय या बुद्धालय के लिए प्रयुक्त हुआ है। अर्थात्, वह पवित्र धर्मस्थल, जहाँ तीर्थंकर या बुद्ध के अतिरिक्त श्रमण साधु विहार के क्रम में आकर ठहरते और प्रवचन करते थे। 'मेघदूत' के प्रसिद्ध टीकाकार वल्लभदेव ने भी चैत्य का अर्थ बुद्धालय ही किया है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का विचार है कि स्तूप और वृक्ष इन दो अर्थों में चैत्य शब्द प्रयुक्त होता है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में वृक्ष अर्थ अभिप्रेत है। कथाकार ने राजगृह के गुणशिलक और पुण्यभद्र चैत्यों का नामोल्लेख किया है और शान्तिस्वामी के चैत्य की धर्म-परिषद् की चर्चा करते हुए लिखा है कि जहाँ जगद्गुरु तीर्थंकर प्रसन्नमुख बैठे थे, वहाँ नन्दिवत्स वृक्ष दिव्य प्रभाव से लोकचक्षु को आनन्द देनेवाले कल्पवृक्ष के समान सुन्दर रक्ताशोक से आच्छादित हो गया (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४१) । ___अरस्वामी भी महाभिनिष्क्रमण के समय शिबिका पर, जिसमें कल्पवृक्ष के फूल सजे थे और उनपर भौरे गुंजार कर रहे थे तथा उसके स्तूप (गुम्बद) में विद्रुम, चन्द्रकान्त, पद्मराग, अरविन्द, नीलमणि और स्फटिक जड़े हुए थे, सवार होकर सहस्राम्रवन में सहकार-वृक्ष (आम्रवृक्ष) के नीचे आकर बैठे। उनके बैठते ही तत्क्षण आम्रवृक्ष मंजरियों से मुस्करा उठा, कोयल मीठी आवाज में कूकने लगी और काले भौरे गुंजार करने लगे (तत्रैव : पृ. ३४७)। ___ इस प्रकार, वृक्षों के वर्णन के क्रम में कथाकार ने अपने सूक्ष्मतम प्राकृतिक और शास्त्र गम्भीर अध्ययन का परिचय दिया है। कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' में उपलब्ध वनों और वनस्पतियों की बहुरंगी उद्भावनाएँ सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से अपना पार्यन्तिक महत्त्व रखती हैं। यहाँ दिग्दर्शन-मात्र प्रस्तुत किया गया है।
भोजन-सामग्री :
प्रस्तुत अध्ययन की भूमिका में लोकजीवन के चित्रण के प्रसंग में संघदासगणी-कृत भोजन-सम्बन्धी वर्णनों का लेखा-जोखा बहुलांशत: किया जा चुका है। यहाँ कतिपय भोज्यसामग्री का उल्लेख अपेक्षित है। कहना न होगा कि संघदासगणी का भोज्य-सामग्री-विवरण बहुधा आगम-ग्रन्थों के आलोक में ही उपन्यस्त हुआ है। 'स्थानांग' (४.५१२-१३) में मनुष्यों
और देवों के चार-चार प्रकार के आहारों का उल्लेख हुआ है। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार मनुष्यों के आहार हैं और वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श इन चार गुणों से युक्त आहार देवों के होते हैं। पुन: 'स्थानांग' (६.१०९) में ही भोजन के छह प्रकार के परिणाम निर्दिष्ट हुए हैं। जैसे : मनोज्ञ (मन में आह्लाद उत्पन्न करनेवाला); रसिक (रसयुक्त), प्रीणनीय (रस, रक्त आदि धातुओं में समता लानेवाला) : बृहणीय (मांस को बढ़ानेवाला): मदनीय (काम की उत्तेजना पैदा
१.विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'मेघदूत : एक अनुचिन्तन' : श्रीरंजन सूरिदेव, पृ. ३३९