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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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( कल्पवृक्ष) उपभोग में आते हैं। ये हैं : १. मदांगक (मादक रसवाले), २. भृंग (भाजनाकार पत्तोंवाले), ३. त्रुटितांग (वाद्यध्वनि उत्पन्न करनेवाले), ४. दीपांग (प्रकाश करनेवाले), ५. ज्योतिषांग (अग्नि की भाँति ऊष्मा सहित प्रकाश करनेवाले), ६. चित्रांग (मालाकार पुष्पों से लदे हुए), ७. चित्ररस (विविध प्रकार के मनोज्ञ रसवाले ) ८. मण्यंग. (आभरणाकार अवयवोंवाले), ९. गेहाकार (घर के आकारवाले) और १०. अननांग (नग्नत्व को ढकने के उपयोग में आनेवाले)। कहना न होगा कि संघदासगणी की कल्पवृक्ष-विषयक कल्पना 'स्थानांग' जैसे आगम-ग्रन्थों पर ही आधृत है ।
संघदासगणी ने स्पष्ट लिखा है कि सृष्टि के प्रारम्भकाल, अर्थात् अवसर्पिणी के तीसरे सुखमय दुःखमय काल के पिछले त्रिभाग में पृथ्वी नयनमनोहर थी। इसकी सतह सुगन्धित, मृदुल और पाँच वर्ण के मणिरत्न से युक्त तथा सरोवर के तल भाग के समान समतल थी। इस पृथ्वी पर मधु, मदिरा, दूध एवं क्षौद्ररस के समान निर्मल और प्राकृतिक जल से भरी हुई, रत्न और सोने की सीढ़ियोंवाली वापियाँ, पुष्करिणियाँ और दीर्घिकाएँ थीं । मत्तांगक, भृंग, त्रुटित, दीपशिखाज्योति, चित्रांग, चित्ररस, मनोहर, मण्यंग, गृहाकार और आकीर्ण नामक दशविध कल्पवृक्ष क्रमशः मधुर, मद्य, भाजन, श्रवणमधुर शब्द, दीपक, प्रकाश, माल्य, स्वादिष्ठ भोजन, भूषण, भवन और इच्छित उत्तम वस्त्र की आपूर्ति करते थे (नीलयशालम्भ : पृ. १५७) । संघदासगणी (तत्रैव) द्वारा चर्चित वर्त्तमान अवसर्पिणी-काल के भारतवर्ष के जम्बूद्वीपवासी सात कुलकरों (विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी या यशस्विन्, अभिचन्द्र, प्रसेनजित् मरुदेव और नाभिकुमार) में प्रथम विमलवाहन के लिए सात प्रकार के वृक्ष निरन्तर उपभोग में आते थे: मदांगक, भृंग, चित्रांग, चित्ररस, मण्यंग, अनग्नक और कल्पवृक्ष (स्थानांग : ७.६५) ।
संघदासगणी ने कल्पवृक्ष के नामान्तर सन्तानक का भी दो-एक स्थलों पर उल्लेख किया है । एक स्थल पर कथाकार द्वारा प्रस्तुत संकेत से यह ज्ञात होता है कि पुरायुग में मन्दर पर्वत की गुफाओं में सन्तानक या कल्पवृक्ष भी उगते थे । गन्धर्वदत्तालम्भ की कथा में वर्णन है कि नवजात चारुदत्त, जातकर्म-संस्कार के बाद, धाई से परिरक्षित और परिजनों से पोषित होकर मन्दराचल की कन्दराओं से उत्पन्न कल्पवृक्ष की तरह निर्विघ्न भाव से बढ़ने लगा : ( " ततो धाइपरिक्खित्तो परियणेण लालिज्जतो मंदरकंदरुग्गओ विव संताणकपायवो निरुवसग्गं वड्डओ; गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३४) ।
संघदासगणी द्वारा उल्लिखित कल्पवृक्ष के अतिरिक्त, नन्दिवत्स और चित्ररस वृक्ष भी स्वर्गीय वृक्ष के समकक्ष थे । कथा है कि शान्तिस्वामी महाभिनिष्क्रमण करके, एक हजार देवों द्वारा ढोई जाती हुई सिद्धार्थशिबिका पर चढ़कर सहस्राम्रवन में आये और नन्दिवत्स वृक्ष के नीचे तप करके उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया (केतुमतीलम्भ: पृ. ३४९) । हरिवंश - कुल की उत्पत्ति में कथाकार ने लिखा है कि हरिवर्षवासी मिथुन की जब एक करोड़ पूर्व की आयु शेष थी, तभी वीरकदेव को उन दोनों के प्रति वैरभाव का स्मरण हो आया। मिथुन की एक लाख वर्ष की आयु जब शेष रह गई, तभी चम्पा राजधानी में इक्ष्वाकु कुल का राजा चन्द्रकीर्त्ति पुत्रहीन स्थिति में मृत्यु को प्राप्त हुआ। वहाँ नागरकों के लिए राजा बनाने की इच्छा से उस मिथुन को नरकगामी जानकर भी, वीरक उसे हरिवर्ष से उठा ले आया। फिर, हरिवर्ष से चित्ररसवृक्ष ले आकर वीरक बोला : 'इस मिथुन के लिए मांसरस से सिंचित इस वृक्ष के फलों को दों। इसके बाद वीरक ने उस मिथुन के कद को धनुष्य (चारहाथ )- प्रमाण ऊँचा कर दिया (पद्मावतीलम्भ: पृ. ३५७) । यहाँ कथाकार द्वारा
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