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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ३६९ जघनदेश था । उत्तम बकरे के समान उसका पेट था। उसके दाँतों का अग्रभाग थोड़ा उठा हुआ और सुन्दर था। उसके अधरों की कान्ति दाडिम- फूल जैसी लाल थी । उसकी पूँछ सीधी और प्रशस्त थी । वसुदेव ने सोचा, यह हाथी भद्र है, यानी प्रशस्त लक्षणोंवाला उत्तम कोटि का हाथी है और आसानी से वश में लाया जा सकता है। वसुदेव उस समय अपने साले अंशुमान् के साथ अपने ससुर राजा कपिल के महल में थे । वह साले के साथ महल से नीचे उतरकर हाथी के पास चले आये। हाथी ने झटका दिया, तो अंशुमान् पीछे लौट गया, किन्तु वसुदेव शीघ्रतापूर्वक हाथी की दूसरी ओर चले गये । वह हाथी चक्राकार घूमने लगा। तभी, वसुदेव ने उसके आगे कपड़ा फेंका और वह वहीं लड़खड़ा गया । वसुदेव उसके दाँतों पर पैर रखकर उसपर सवार हो गये । राजा, उसका अन्तःपुर और सभी उपस्थित लोग आश्चर्यान्वित हो उठे । उसके बाद वसुदेव हाथी को मनमाने ढंग से घुमाने - फिराने लगे । इस प्रसंग में कथाकार ने हस्तिशिक्षा की विधि का वर्णन तो किया ही है, उत्तम हाथी के आंगिक लक्षणों को भी निरूपित किया है । इससे कथाकार की हस्तिशिक्षा में निपुणता का संकेत मिलता है । 1 इसी प्रकार, बारहवें सोमश्रीलम्भ (पृ. २२१) में भी वसुदेव द्वारा हाथी खेलाने की विधि का मनोरंजक उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें तो हस्तिशास्त्रज्ञ कथाकार ने हाथी को खेलाने की विधि के कतिपय पारिभाषिक शब्दों का भी उल्लेख किया है। जैसेः सिंहावलि, दन्तावलि, गात्रलीन, शार्दूललंघन, पुच्छग्रहण आदि। ये सब प्रक्रियाएँ हाथी को घुमाने - फिराने की विधि से सम्बद्ध थीं, जिनसे वह (हाथी) शीघ्र ही वशंवद हो जाता था । कथाकार ने तीन ऐसे हाथियों का नामतः उल्लेख किया है, जो मनुष्य-भव से हस्तिभव में उद्वर्त्तित हुए थे । वे हैं : अशनिवेग, ताम्रकल और श्वेतकंचन । राजा सिंहसेन, सर्पभव में उद्वर्त्तित अपने श्रीभूति पुरोहित से डँसे जाने पर, मरकर शल्लकीवन में हाथी के रूप में पुन: उत्पन्न हुआ था । वनेचरों ने उस हाथी का नाम अशनिवेग रख दिया था (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५५-५६) । इसी प्रकार, जम्बूद्वीप के ऐरवतवर्ष - स्थित रत्नपुर नगर के निवासी धनवसु और धनदत्त नामक शकटवणिक् (बैलगाड़ी पर माल लादकर व्यापार करनेवाले व्यापारी) नकली माप-तौल के प्रयोग द्वारा पाप अर्जित करने के कारण कलुषित चित्त से आपस में लड़कर मर गये और ऐरवतवर्ष की सुवर्णकूला नदी के तट पर हस्तिकुल में विशालकाय हाथी हो गये । वनेचरों ने उनके नाम 'ताम्रकल' और 'श्वेतकंचन' रख दिये (केतुमतीलम्भ : ३३४)। कथाकार ने ऐरावत हाथी की चर्चा तीर्थंकरों की माताओं के महास्वप्नों के वर्णन-क्रम में की है। इसके अतिरिक्त चौदन्ता हाथी का भी उल्लेख उन्होंने किया है । कथा है कि वर्तमान सृष्टि आदिकाल में दो सार्थवाहपुत्र एक साथ पले-बढ़े। दोनों ही स्वभाव से भद्र थे । आगे चलकर उन दोनों में एक पुत्र किसी कारणवश मायावी हो गया। इनमें पहला अ-मायावी पुत्र मृत्यु को प्राप्त करके अर्द्ध भरत के मध्यदेश मिथुन पुरुष के रूप में उत्पन्न हुआ। और दूसरे ने मायावी होने के कारण, उसी देश में, तिर्यग्योनि में, उजले हाथी के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया। यह हाथ ऐरावत के समान श्रेष्ठ लक्षणोंवाला था और उसके चार दाँत थे । आधुनिक युग में तो उजले चौदन्ते हाथी कल्पना के विषयमात्र रह गये हैं । उस पुराकाल के चक्रवर्ती राजाओं के प्रसिद्ध चौदह रत्नों में हस्तिरत्न और अश्वरत्न का भी उल्लेख किया गया है ("एरावणरूविणा चउदंतेण
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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