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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बहत्कथा
'रघुवंश' (१७.७०) से यह भी सूचना मिलती है कि गन्धहस्ती बड़ा उन्मत्त होता है और मदरहित हाथियों के साथ निरन्तर लड़ने की मनोवृत्ति में रहता है। भारवि के 'किरातार्जुनीय' (१७.१७) में भी गन्धहस्ती का उल्लेख आया है । संघदासगणी ने श्रेष्ठ श्रमण की उपमा गन्धहस्ती से दी है ("समणवर-गन्धहत्यि पेच्छति"; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३५)।
एक बार वसुदेव भ्रमण करते हुए कुंजरावर्त अटवी में पहुँचे, तो वहाँ उन्होंने कालमेघ की तरह हाथियों के झुण्ड को पानी पीने के लिए सरोवर में उतरते हुए देखा। उस झुण्ड का एक-एक हाथी क्रम से पानी पीकर चला गया। वसुदेव भी सरोवर में उतरकर स्नान करने लगे। इसी समय हथिनी का पीछा करता हुआ मदजल से सुरभित गण्डस्थलवाला गजयूथपति सरोवर में उतरा। वसुदेव ने गौर से देखा कि वह हाथी उत्तम लक्षणोंवाला गन्धहस्ती है । गन्ध का अनुसरण करता हुआ वह हाथी वसुदेव के पीछे पड़ गया। वसुदेव ने सोचा कि पानी में हाथी से लड़ना सम्भव नहीं है। अच्छा होगा कि नजदीक आने पर उससे निबटा जाय । वसुदेव पानी से बाहर निकल आये। वह हाथी भी सरोवर से बाहर आकर उनके पीछे लग गया। उसकी सूंड़ की लपेट से बचते हुए उन्होंने उसके शरीर पर प्रहार किया और उसे बड़ी होशियारी से भरमाने लगे। सुकुमार
और भारी-भरकम शरीर होने के कारण वह उन्हें पकड़ नहीं पाता था। वसुदेव ने उसे जहाँ-तहाँ बकरे की तरह घुमाया। उसे थका हुआ जानकर उन्होंने उसके सामने चादर फेंकी। वह उसमें उलझ गया। वसुदेव भी उस महागज के दाँतों पर पैर रखकर तुरत ही उसकी पीठ पर चढ़ बैठे । उसके बाद वह हाथी विनम्र शिष्य की तरह वशवर्ती हो गया। फिर, वह उसे चादर से अंकुशित-सा करते हुए इच्छानुसार घुमाने लगे (द्वितीय श्यामलीलम्भ : पृ. १२२)।
संघदासगणी ने हाथी के खेलाने की विधि ('हत्थिखेल्लावन') के और भी कई रोचक प्रसंग उपस्थित किये हैं। धम्मिल्ल ने भी उपर्युक्त विधि से, यानी हाथी के सामने चादर फेंककर उसे उलझाया था और अपने वश में कर लिया था (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ५५) । धम्मिल्ल जब विमलसेना के साथ रथ पर जा रहा था, तभी कालमेघ की तरह चिग्घाड़ता, प्रचुर मदजल से जमीन को सींचता तथा दाँत और सैंड को ऊपर उठाये हुए एक बिगडैल हाथी रास्ता रोककर खड़ा हो गया। धम्मिल्ल विमलसेना को आश्वस्त करके रथ से उतरा और हाथी खेलाने लगा। उसने हाथी को ललकारा। हाथी सँड़ उठाकर ज्योंही उसे मारने दौड़ा कि उसने चादर को गोल करके हाथी के आगे फेंका। हाथी उसमें उलझ गया और धम्मिल्ल फुरती से उसके दाँतों पर पैर रखकर उसके कन्धे पर चढ़ बैठा। हाथी क्रुद्ध होकर दौड़ने, उछलने और कूदने लगा तथा धम्मिल्ल को अपने पैर, दाँत, सँड़ और पूंछ से मारना चाहकर भी नहीं मार सका। धम्मिल्ल हस्तिशिक्षा के नियमों के अनुसार ही उसे खेलाता रहा । अन्त में, हाथी चिग्घाड़ता और पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता भाग खड़ा हुआ। धम्मिल्ल मुस्कराता हुआ रथ पर आ बैठा। विमलसेना उसकी वीरता पर विस्मित रह गई !
आठवें पद्मालम्भ (पृ. २०१) में भी वसुदेव द्वारा हाथी खेलाने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। कथा है कि एक बार महावत जंगली हाथी ले आया। वसुदेव ने देखा कि उस हाथी का मुँह उठा हुआ था। उसकी सूंड प्रमाण के अनुसार लम्बी और सुदर्शन थी तथा उसकी पीठ धनुषाकार थी। उज्ज्वल नखवाले उसके पैर कछुए की तरह लगते थे। वराह की भाँति उसका