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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३६७ जबड़ा बड़ा तीखा था। वह, जंगल, अनेक झमाट अर्जुन वृक्षों से दुर्गम था; अनेक हिंस्रक पशुओं तथा पक्षियों से व्याप्त था और वहाँ जल से भरे अनेक सरोवर थे (तत्रैव : पृ. ५४-५५)। इस वर्णन से स्पष्ट है कि कथाकार ने वन्य हिंस्रक जीवों के स्वभाव का गहन अध्ययन किया है तथा जांगल परिवेश की दुर्गमता और भयानकता का मानों आँखों देखा रूप चित्रित किया है। ___ 'वसुदेवहिण्डी' से यह ज्ञात होता है कि तद्युगीन जंगलों में रुरुमृग बहुतायत-से पाये जाते थे और राजा की ओर से उनके शिकार करने की मनाही थी। जो कोई राजाज्ञा का उल्लंघन कर रुरुमृग को मारता था, उसे प्राणदण्ड दिया जाता था। कथा है कि वाराणसी के नलदाम नामक बनिया के प्रमादी पुत्र मन्मन ने राजाज्ञा की अवहेलना करके रुरुमृग को मार डाला। फलत:, वहाँ के राजा दुर्मर्षण ने मन्मन को प्राणदण्ड की आज्ञा दी (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९४) । उस युग में वातमृग भी अधिक संख्या में पाये जाते थे। वे पक्षी की तरह उड़ने में भी समर्थ होते थे। शकुनशास्त्री उन्हें शुभ और लाभ का सूचक मानते थे। एक बार वसुदेव को भ्रमण के क्रम में किसी जंगल में वातमृगों के दर्शन हुए थे और उन्होंने उन्हें शुभसूचक समझा था। वे वातमृग वसुदेव को देखकर पक्षी की तरह उड़कर दूर चले गये और फिर नीचे उतर आये : "ट्ठिा य मया मिगा, ते उप्पइया दूरं गंतणं सउणा इव निवइया। ततो मे उप्पण्णा चिंता-एते वायमिगा ट्ठिा पसत्यदंसणा महंतं लाभं वेदिहि त्ति सुव्वए विउसजणाओ (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८१) ।” बुधस्वामी के 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में भी वातमृग की चर्चा की गई है। बुधस्वामी ने उसे 'वातमजमृग' या 'वातहरिण' कहा है (द्र. सर्ग ८, श्लो. ४२ तथा ५२) । कथाकार संघदासगणी ने वन्य जन्तुओं में सियार और भेड़िये का भी उल्लेख किया है (नीलयशालम्भ : पृ. १६८)।
'वसुदेवहिण्डी' में हाथी और घोड़े जैसे सुपरिचित पशुओं की तो भूरिश: चर्चा हुई है। हाथी और घोड़े के खेलाने और दमन करने की विधियों के उल्लेख से तो संघदासगणी का हस्तिशास्त्र और अश्वशास्त्र का मर्मज्ञ होना सूचित होता है। हाथियों में गन्धहस्ती के उल्लेख के प्रति संघदासगणी ने विशेष आग्रह प्रदर्शित किया है। 'प्राकृतशब्दमहार्णव' में उत्तम हस्ती को गन्धहस्ती माना गया है और बताया गया है कि गन्धहस्ती की गन्ध से दूसरे हाथी भाग जाते हैं। प्रसिद्ध संस्कृत-कोशकार आप्टे महोदय ने गन्धहस्ती को 'सुवासहाथी' या 'सर्वोत्तम हाथी' कहा है। 'विक्रमांकदेवचरित' के अनुसार, गन्धहस्ती का बच्चा भी दूसरे हाथियों को अपने वश में रखता है। कालिदास ने भी 'रघुवंश' में लिखा है कि पुरवासियों की आँखें अन्य राजाओं को छोड़कर अज पर उसी प्रकार केन्द्रित हो गईं, जिस प्रकार भ्रमरावलियाँ खिले हुए पुष्पवृक्षों को छोड़कर मदोत्कट गन्धहस्ती के गण्डस्थल पर जा बैठती हैं। इससे स्पष्ट है कि समधिक शक्तिशाली गन्धहस्ती को तीव्र मदस्राव होता है और उसके मद की गन्ध अतिशय उत्कट होती है। इसीलिए, उसकी गन्ध मिलते ही दूसरे हाथी भाग खड़े होते हैं । 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्त वर्णन से यह भी सूचित होता है कि गन्धहस्ती किसी मनुष्य की गन्ध का अनुसरण करके उसके निकट आक्रमण के लिए पहुँच जाता था (गंधहत्थी गंधमणुसरंतो ममं अणुवइउमारद्धो; श्यामलीलम्भ : पृ. १२२)।
१. शमयति गजानन्यान्गन्धद्विपः कलभोऽपि सन्। -विक्रमांक. ५.१८ २. नेत्रव्रजाः पौरजनस्य तस्मिन्विहाय सर्वानृपतीनिपेतुः।
मदोत्कटे रेचितपुष्पवृक्षा गन्धद्विपे वन्य इव द्विरेफाः॥ -रघु. ६.७