________________
३६६
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा में तो शततन्त्री वीणा का उल्लेख है। वीणा के सन्दर्भ में के लिए डॉ. लालमणि मिश्र ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संगीतवाद्य' में अनेक महत्त्वपूर्ण शोध-सूचनाएँ आकलित की हैं। कहना न होगा कि वैदिक युग से आधुनिक युग तक तन्त्री-वाद्यों के विकास का अपना ऐतिहासिक मूल्य है।
वीणा-वादन की प्रतिस्पर्धा का एक मनोरम चित्र बुधस्वामी के 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के सोलहवें-सत्रहवें अध्याय में उपलब्ध होता है, जिसकी 'वसुदेवहिण्डी' के 'गन्धर्वदत्तालम्भ' की वीणा-प्रतियोगिता के वर्णन से तुलना करने पर सम्भावना होती है कि इन दोनों समानान्तर कथाओं का मूल स्रोत गुणाढ्य की (अधुना अप्राप्य) 'बृहत्कथा' रही हो ।
पशु-पक्षी-सर्प :
लोकसांस्कृतिक तथ्यों के उद्भावन-क्रम में संघदासगणी ने पशुओं, पक्षियों और सो का भी बड़ी सूक्ष्मदर्शिता के साथ चित्रण किया है। उन्होंने वन्य जन्तुओं में वानर, बाघ, सिंह, रीछ, भालू, गन्धहस्ती, वन्यहस्ती, रुरुमृग, वातमृग आदि पशुओं एवं भारुण्ड, मयूर आदि पक्षियों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार, यथाप्रसंग घोड़ा, हाथी, गाय, महिष एवं कुक्कुट, कबूतर, सारिका (मैना), सुग्गा आदि घरेलू पालतू पशु-पक्षियों का वर्णन भी कथाकार ने प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त, कई भयानक साँपों का तो रोमांचक और रुचिकर चित्रण उपन्यस्त किया गया है।
संघदासगणी ने दो स्थलों पर क्रुद्ध बाघ का बड़ा स्वाभाविक वर्णन किया है : पहला, अगडदत्तचरित में और दूसरा धम्मिल्लचरित में। श्यामदत्ता के साथ रथ पर जाते हुए अगडदत्त ने जंगल में अपने सामने जो बाघ देखा था, उसका वर्णन इस प्रकार है : वह बाघ, लोगों को दुःख देने में कभी न थकनेवाले यमराज के लिए भी भय उत्पन्न कर रहा था। उसके केसर बड़े लम्बे-लम्बे थे। (बाघ के केसर होने की कल्पना से यह स्पष्ट है कि अगडदत्त ने बाघ नहीं, अपितु सिंह देखा था। यों, संघदासगणी द्वारा प्रयुक्त 'वग्धं' शब्द बाघ-सिंह की सामान्यता का सूचक है।) वह अपनी लम्बी पूँछ को ऊपर उठाकर फटकार रहा था और लाल कमलदल की तरह अपनी जीभ को बाहर निकाल रहा था। उसका जबड़ा अतिशय कुटिल और तीखा था। जिससे वह बहुत डरावना लग रहा था (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४५)। वह बाघ जिस जंगल में रहता था, उसे भी बड़ा बीहड़ बताया गया है : अत्यन्त भयावना वह जंगल अनेक प्रकार के वृक्षों से दुर्गम बना हुआ था; जगह-जगह विभिन्न प्रकार की लताओं की घनी झाड़ियाँ थीं; पहाड़ की गुफाओं से निकले झरनों का पानी जमीन पर फैला हुआ था; विभिन्न प्रकार के पक्षियों की आवाजें वहाँ गूंज रही थीं; झींगुर बड़े कर्कश स्वर में झनकार रहे थे; कहीं बाघ की गुर्राहट तथा रीछ (भालू) की घुरघुराहट प्रतिध्वनित हो रही थी; कहीं वानरों (शाखामृगों) की कठोर किलकिलाहट भी सुनाई पड़ रही थी; एक अजीब भयानक चीख और पुकार से कान के परदे फटे जा रहे थे; पुलिन्दों द्वारा वित्रासित बनैले हाथी जोर-जोर से चिग्घाड़ रहे थे और कहीं वे (हाथी) “मडमड' की आवाज के साथ सल्लकी के जंगल को उजाड़ रहे थे (तत्रैव : पृ. ४४) ।
विमलसेना के साथ रथ पर जाते हुए धम्मिल्ल को जिस जंगल में बाघ से भेंट हुई थी, उसका और जंगल का वर्णन संक्षिप्त और थोड़ा भिन्न है: वह बाघ, आदमी और पशुओं के रक्त और मांस का लोभी था; जीभ से अपने होंठों को चाट रहा था; मुँह फाड़े हुए था और उसका