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________________ ३६५ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन 'वसुदेवहिण्डी' से यह संकेतित है कि उस युग में पणव और दुन्दुभी जैसे अवनद्ध वाद्यों का भी प्रयोग प्रचलित था। ‘पंचदिव्य' उत्पन्न करते समय देवों द्वारा दुन्दुभी बजाने का स्पष्ट उल्लेख है। नगाड़ा, धौंसा, नक्कारा, निसान, दमामा आदि दुन्दुभी के ही भेद थे । वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, संहिताग्रन्थ, सूत्रग्रन्थ, आरण्यक, पुराण आदि समस्त प्राचीन भारतीय वाङ्मय दुन्दुभी के वर्णनों से व्याप्त है । इस सन्दर्भ में विशेष शोध-विवरण डॉ. लालमणि मिश्र के 'भारतीय संगीतवाद्य' नामक पुस्तक में द्रष्टव्य है। संघदासगणी ने रोहिणीलम्भ (पृ. ३६४) में वसुदेव को पणववादक ('गोज') के रूप में चित्रित किया है । ढोल बजानेवाले ढोलकिये को उस समय ‘गोज' कहा जाता था। किसी विद्या-देवी ने रोहिणी को ढोलकिये के रूप में वसुदेव को पहचानने का संकेत किया था और उसी देवी ने वसुदेव को भी यह रहस्य बता दिया था। देवी के आदेशानुसार, वसुदेव पणव (ढोल) लेकर स्वयंवर-मण्डप में ढोलकियों के बीच जा बैठे थे और ढोल बजा देने पर रोहिणी ने उनका वरण कर लिया था। 'प्राकृतशब्दमहार्णव' में 'गोज्ज' शब्द का उल्लेख हुआ है और इसे देशी शब्द माना गया है, जिसका अर्थ गवैया या गायक दिया गया है। ‘पउमचरिय' में भी गायक के लिए 'गोज्ज' शब्द का प्रयोग गायक-विशेष के ही अर्थ में हुआ है। 'वसुदेवहिण्डी' में प्रसंगानुसार, 'गोज' का अर्थ ढोलकिया ही सम्भव है; क्योंकि जब वसुदेव ने ढोल बजाया, तब रोहिणी ने उनका वरण किया और तभी स्वयंवर में उपस्थित राजा क्षुब्ध होकर आपस में पूछने लगे कि रोहिणी ने किसका. वरण किया, तब किसी ने कहा कि ढोलकिये का वरण किया है ("केई भणंति-गोजो वरिओ" ; तत्रैव, पृ. ३६४)। ज्ञातव्य है कि मृदंग के समान पणव भी भारत का अतिप्राचीन अवनद्ध वाद्य है। महर्षि भरत ने अवनद्ध अंगवाद्यों में मृदंग, पणव और दर्दुर की गणना करते हुए इन्हें सर्वाधिक महत्त्व दिया है (नाट्य, ३३.१६) । 'महाभारत', 'गीता', 'वाल्मीकि रामायण' आदि में पणव की भूरिश: चर्चा आई है । भरतमुनि ने पणव को विश्वकर्मा की सहायता से स्वाति और नारदमुनि द्वारा निर्मित कहा है। संघदासगणी द्वारा वर्णित तत वाद्यों में वीणा का भूरिश: उल्लेख मिलता है। वीणा के सम्बन्ध में विशद चर्चा प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ के पिछले पृष्ठों में की जा चुकी है। सामगान के समय वेणु ही ऐसा वाद्य था, जिसके स्वर स्थिर थे, अतएव उसी से वीणा मिलाई जाती थी। जब स्वर-नामों में अनेक परिवर्तन होने लगे, तब मनीषियों ने वेणु के स्थान पर वीणा को प्रमुखता दी। वैदिक वाड्मय के उपलब्ध वाद्यों में वीणा का प्रमुख स्थान है। 'वीणा' को वेदों में 'वाण' भी कहा गया है। 'ऋग्वेद' में तन्तुवाद्यों को 'आघाटी' कहा गया है (१०.१४६.२) । वैदिकोत्तर सूत्र और स्मृतिकाल में भी वीणा का महत्त्व स्वीकृत किया गया है । ‘याज्ञवल्क्यस्मृति' (३.४.१५) में 'वीणावादनतत्त्वज्ञ' को मोक्षमार्ग का अधिकारी माना गया है। 'शांखायन श्रौतसूत्र' १. वीणावंससणाहं, गीयं नडनट्टछत्तगोज्जेहिं । बंदिजणेण सहरिसं,जयसद्दालायणं च कयं ॥ (८५.१९) २. गत्वा (ध्यात्वा) सृष्टं मृदङ्गानां पुष्करानसृजत्ततः। पणवं दर्दुरांश्चैव सहितो विश्वकर्मणा ॥ (३३.१०)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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