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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
भारत का अतिशय प्रसिद्ध युद्धकाव्य 'महाभारत' युद्ध के वर्णनों से भरा पड़ा है। 'महाभारत' युद्धवाद्यों के विस्तृत प्रयोग का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसमें अनेक स्थानों पर तूर्य, भेरी, मृदंग, पणव, शंख आदि की तुमुल ध्वनियों के साथ सैनिकों को युद्ध के लिए प्रस्थान करते
चित्रित किया गया है । द्रोणपर्व (८८.१) में भेरी, मृदंग और शंख की ध्वनियों के साथ सेना का कूच करना वर्णित है । वाल्मीकिरामायण (६.३७.५२) में भेरी, पणव और गोमुख के साथ-साथ कुम्भ का भी उल्लेख आया है। युद्धवाद्यों में शंख का भी प्रमुख स्थान था । 'गीता' के प्रथम अध्याय के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि न केवल सामान्य सैनिक, अपितु बड़े-बड़े वीर अपना-अपना शंख रखते थे । श्रीकृष्ण का पांचजन्य, अर्जुन का देवदत्त, भीम का पौण्ड्र, युधिष्ठिर का अनन्तविजय, नकुल का सुघोष तथा सहदेव का मणिपुष्पक शंख था। सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अलौकिक शंख बजाये थे। पाण्डव - सेना की भयंकर शंखध्वनि से आकाश और पृथ्वी गूँज उठी थी । 'महाभारत' के शान्तिपर्व (१००.४६) में क्ष्वेद, किलकिल आदि वाद्यों की उन धुनों के नाम प्राप्त होते हैं, जो युद्धरत सैनिकों में उत्साह भरती थीं। युद्ध के समय वाद्यों के प्रयोग का प्राचीनतम उल्लेख वेदों में प्राप्त होता है । समय दुन्दुभी तथा आदम्बर युद्ध में प्रयुक्त होनेवाले मुख्य वाद्य थे। 'ऋग्वेद' में युद्ध के समय दुन्दुभी द्वारा उत्साह-वृद्धि का सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है।' अथर्ववेद में भी युद्धवाद्यों की प्रशंसा तथा उनकी शक्ति का उल्लेख किया गया है ।
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संघदासगणी का प्रस्तुत वाद्य प्रसंग भी उपर्युक्त प्राचीन युद्धवाद्यों के ही परिप्रेक्ष्य में उपन्यस्त हुआ है । प्राचीन भारत का इतिहास देखने से स्पष्ट पता चलता है कि इस देश में सदा युद्ध होते रहते थे । 'वसुदेवहिण्डी' में भी इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। धम्मिल्ल ने जब चोर -सेनापति अर्जुन का वध कर दिया, तब अशनिपल्ली का सेनापति पटह, भम्भा और शंख बजाते, विजय-वैजयन्ती फहराते तथा युद्धोत्साहक 'किलकिल' शब्द करते हुए ("... पडह-भंभारव-संखसद्दवोमीस्सं विजयवेजयंतीय सोहियं भडकिलकिलरवोमीसं उक्कट्ठिसद्दं..."; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ५६ ) अपने सैनिकों के साथ धम्मिल्ल के पास आया था और धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उसने उससे (धम्मिल्ल से) अपने अधिपति का कृतज्ञता - सन्देश दिया था कि 'तुमने चोर -सेनापति का वध करके अशनिपल्ली के अतिशय भयोत्पादक मार्ग को निरुपद्रव और कल्याणमय कर दिया है।" ("तुमए किर अज्जुणओ नाम चोरसेणावती मारिओ, बहुभयजणणो य इमो मग्गो खेमीकओ ।" तत्रैव : पृ. ५६) निश्चय ही, जैसा कहा गया, संघदासगणी के युद्धवाद्य का यह प्रसंग प्राचीन भारतीय शास्त्रों के यौद्धिक परिवेश से प्रभावित है।
१. पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ – गीता : १. १५-१६
(इसके अतिरिक्त श्लोक-सं. १२, १३, १४, १७, १८ और १९ भी द्रष्टव्य है ।)
२. ऋग्वेद, ६. ४७. २९-३१
३. अथर्ववेद, ५. २०-२१