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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
पर उत्कीर्ण यक्षी की कण्ठमाला के मध्य में श्रीवत्स पिरोया हुआ है। साथ ही, ई. पू. प्रथम शती की कला में श्रीवत्स प्रायः त्रिरत्न के साथ समान रूप में उपस्थित मिलता है । साँची (म.प्र.) के स्तूप तथा उदयगिरि-खण्डगिरि (उत्कल) की तोरण- रचना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ।
'वसुदेवहिण्डी' में, कहना न होगा कि रत्नों और मणियों और उनसे निर्मित अलंकरणों की प्रचुर चर्चा की गई है और यह भी सूचित किया गया है कि उस युग में एक-से-एक रत्नपारखी (जौहरी) भी होते थे । रत्न- पारखियों में इभ्यपुत्रों का स्थान सर्वोपरि थी (“सो य पुण रयणपरिक्खाकुसलो”; कथोत्पत्ति : पृ. ४) । 'वसुदेवहिण्डी' में यह भी बताया गया है कि तत्कालीन लोकजीवन में आभूषण धारण कुलाचार के रूप में प्रचलित था। इसके अतिरिक्त कुछ आभूषण ऐसे थे, जो निरन्तर धारण नहीं किये जाते थे, अपितु विशिष्ट अवसरों पर ही उन्हें पहना जाता था । संघदासगणी ने लिखा है कि जब शाम्ब और भानु में अलंकरण- प्रदर्शन की बाजी लगी थी, तब शाम्ब के अग्रज प्रद्युम्न ने महादेवी शिवा (नेमिनाथ की माता) से उन आभूषणों को माँगा था, जिन्हें अरिष्टनेमि (बाईसवें तीर्थंकर : प्रद्युम्न के चाचा) को देवों ने दिया था। इस बात पर प्रद्युम्न से महादेवी ने कहा था : “ प्रद्युम्न ! तुम्हारे लिए कुछ अदेय नहीं है । किन्तु तुम्हारे चाचा के आभूषण क्षत्रिय निरन्तर धारण नहीं करते । अन्यथा, तुम्हें मैं दे देती । सम्प्रति, जिस कार्य के लिए तुम उन्हें माँग रहे हो, उसकी सम्पन्नता के लिए ले जाओ ( पीठिका: पृ. १०६) ।”
अंग-प्रसाधन और सज्जा :
संघदासगणी ने रत्नों, मणियों और सुवर्ण के विविध प्रकारों से निर्मित अलंकरणों की चर्चा के साथ ही अंग-प्रसाधन के वर्णन के क्रम में पुष्पाभरणों की भी भूरिशः आवृत्ति की है। जूड़े में दूर्वांकुर और प्रवालयुक्त फूलों की माला धारण करने की तो तत्कालीन सामान्य प्रथा थी । नीलयशा के विशेषण में कहा भी गया है: “सियकुसुमदुव्वापवालसणाहके सहत्या"; (नीलयशालम्भ : पृ. १७९) । कथाकार ने उस युग में श्रीदाम माला के धारण करने का उल्लेख किया है। ("निग्गयस्स मे सिरिदामगंडं पाएसु लग्गं; तत्रैव : पृ. १७९) यह श्रीदाम माला फूलों से बनती थी, जिसकी शोभा अद्वितीय होती थी । ज्योतिष्प्रभा और सुतारा ने क्रमशः अचल और त्रिपृष्ठ के गले में रत्नमाला के साथ ही फूल की माला अर्पित की थी ("ते य णाहिं रयणमालाहिं कुसुमदामेहिं य अच्चिया” केतुमतीलम्भ: पृ. ३१४) । उस समय पुरुष अपने माथे में फूल की माला या खुशबूदार फूलों की कलँगी बाँधते थे । व्यायाम के द्वारा हलका शरीर बनाये हुए धम्मिल्ल ने जिस घुड़सवार का बाना धारण किया था, उस समय उसने सुगन्धित फूलों की कलँगी माथे में लगाई थी और वह पंछी की तरह खेल-ही-खेल में घोड़े पर चढ़ गया था: " कुप्पास्यसंवुयसरीरो, अद्धोरुयकयबाहिचलणों, सुरहिकुसुमबद्धसेहरो विचित्तसोभंतसव्वंगो, कयवायामलघुसरीरो विहगो विव लीलाए आरूढो (धम्मिलहिण्डी : पृ. ६७) ।”
फूल की मालाएँ आभरण के रूप में प्रयुक्त तो होती ही थीं, सजावट के कामों में भी उनका व्यापक प्रयोग होता था । स्वयंवर - मण्डप के खम्भों में सुगन्धित मालाएँ सजाने का उल्लेख संघदासगणी ने किया है: “सरस- सुरहिमल्लदाम-परिणद्धखंभ- सहस्ससन्निविट्ठो ।” (केतुमतीलम्भ: पृ. ३१४) ।” स्वर्णमय कमलों ("कणयमयकमलमालापडिबद्ध", तत्रैव : पृ. ३१४ ) और पाँच रंग के फूलो ("दसद्धवण्णपुष्पपुण्णभूमिभाओ” तत्रैव : पृ. ३१४) की मालाएँ सजावट