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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३५९ की है। आप्टे ने इसे 'लालमणि' कहा है। 'कल्पसूत्र' का साक्ष्योल्लेखपूर्वक 'प्राकृतशब्दमहार्णव' में कहा गया है कि कुरुविन्दरत्न से बने भूषणविशेष को 'कुरुविन्दावर्त' कहते हैं । 'बृहत् हिन्दी-कोश' ने कुरुविन्द का अर्थ 'माणिक' किया है। इस विवरण से यह आभासित होता है कि उस युग में कुरुविन्द मणि अत्यधिक श्रेष्ठ समझी जाती थी और उसकी गोलाई एवं मसृणता अतिशय दीप्त एवं मनोरम होती थी, तभी तो संघदासगणी जैसे भारतीय संस्कृति के सूक्ष्म अध्येता कथाकार ने प्रशस्त जंघा के उपमान के लिए कुरुविन्द मणि का निर्वाचन किया। यद्यपि, परवर्ती काल में संघदासगणी की यह वर्णन-रूढि ग्राह्य न हो सकी। इस तथ्य को अनुमान के आधार पर इस रूप में समझा जा सकता है कि परवर्ती काल में कुरुविन्द मणि का लोप हो गया, इसलिए विना उसको देखे वर्णन करना कवियों को असंगत प्रतीत हुआ होगा। 'प्राकृतशब्दमहार्णव' के अनुसार, परवर्ती काल में एकमात्र 'गउडवहो' (आठवीं शती) में ही कुरुविन्द का उल्लेख किया गया है।
इस विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि संघदासगणी ने कुरुविन्द मणि अवश्य देखी होगी, अन्यथा आगमोक्त वर्णन की पुनरावृत्ति कर दी होगी। 'प्राकृतशब्दमहार्णव' ने 'औपपातिक सूत्र' आगम का उदाहरण भी उपस्थित किया है: “एणीकुरुविंदचत्तवट्टाणुपुव्वजंचे।” 'प्राकृतशब्दमहार्णव' ने कुरुविन्द का एक अर्थ कुटिलिक रोग या जंघारोग-विशेष भी किया है। इससे यह भी सहज अनुमेय है कि कुरुविन्द की आकृति से जंघा का आकृतिसाम्य अवश्य ही होगा, तभी आयुर्वेदज्ञों ने 'कुरुविन्द' को जंघारोग कहा होगा। आकृतिसाम्य से रोगों के नाम रखने की आयुर्वेद की अपनी परिपाटी रही है। जैसे, शरीर में प्रविष्ट शूल चुभने जैसा कष्ट देनेवाले रोग को, शूल की कष्टदायक आकृति के साम्य से, शूल कहा जाता है। या फिर, वातरोग की 'ताण्डव' संज्ञा उसके शिर:कम्प आदि नृत्य की भंगिमा के लक्षणसाम्य से ही निर्धारित की गई होगी।
श्रीवत्स चिह्न वैदिक परम्परा और श्रमण-परम्परा में समान भाव से चर्चित है। यह चिह्न महापुरुषों के वक्षःस्थल पर अंकित रहता था। यह एक ऊँचा अवयवाकार चिह्न-विशेष होता था। वैदिक परम्परा में यह चिह्न विष्णु के वक्षःस्थल पर अंकित माना गया है और श्रमण-परम्परा में भी तीर्थंकरों तथा बलराम और कृष्ण जैसे शलाकापुरुषों के वक्षःस्थल पर अंकित बताया गया है। आप्टे ने श्रीवत्स का अर्थ छाती पर बालों का घूघर या चिह्नविशेष अर्थ किया है। पुराणप्रसिद्ध समुद्र-मन्थन से प्राप्त कौस्तुभ मणि को भी कृष्ण ने अपने वक्षःस्थल पर धारण किया था। सम्भवतया, इसी मणि के आधार पर शारीरिक श्रीवत्स लांछन का भी रत्नालंकार-विशेष में रूपान्तरण हो गया। संघदासगणी ने लिखा है कि रोहिणी ने जिस समय बलराम को उत्पन्न किया, उस समय उसका वक्षःस्थल शंख, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल श्रीवत्स के लांछन से अंकित था (रोहिणीलम्भ, पृ. ३६६)।
इसके अतिरिक्त, ऋषभस्वामी के नखशिख-वर्णन में भी संघदासगणी ने उन्हें “सिरिवच्छंकिय विसालवच्छो' (नीलयशालम्भ : पृ. १६२) कहा है। 'लिंगपुराण' में अश्व-विशेष की छाती पर कुंचित श्वेत केशगुच्छ को श्रीवत्स कहा गया है। इन विवरणों से स्पष्ट है कि श्रीवत्स प्रसिद्ध उत्तम अंगलक्षणों में अन्यतम था और इस प्रकार यह एक विशिष्ट मांगलिक या स्वस्तिक चिह्न था। श्रीवत्स का यही रूप धीरे-धीरे विकसित होकर रत्नमय अलंकरण के रूप में अपना स्वतन्त्र अभिज्ञान रखने लगा। डॉ. जगदीश गुप्त ने कहा है कि दो सौ ईसवी-पूर्व भरहुत की वेदिका १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य डॉ. जगदीश गुप्त का लेख 'श्रीवत्स : एक रहस्यात्मक मांगलिक चिह्न', 'मनोरमा' (इलाहाबाद), जनवरी (द्वितीय पक्ष), सन् १९७८ ई, पृ.९