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३५८ . वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा मउडमणिकिरणरंजियपायवीढो (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४५)।" जरासन्ध का पादपीठ भी विनत सामन्तों के मुकुटो, की मणि-किरणों से अनुरंजित रहता था : ‘सामंतपत्यिवपणयमउडमणिकराऽऽरंजियपायकीढो' (वेगवतीलम्भ : पृ. २४७) । उस युग में एक जोड़ा पट्टवस्त्र और एक जोड़ा कटक से किसी को सम्मानित करने का कार्य सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से अतिशय मूल्यवान् माना जाता था (पीईपुलयायमाणसरीरा पट्टजुयलं कड़गजुयलं च दाऊण विसज्जेइ"; केतुमतीलम्भ : पृ. ३५६)।
संघदासगणी ने कहीं-कहीं नामत: अलंकारों का वर्णन न करके सामूहिक शब्दसंकेत-मात्र कर दिया है। जैसे: “सव्वालंकारभूसिया" (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ५७), "सव्वालंकार-विभूसिओ" (कथोत्पत्ति : पृ. ७)” “अलंकियविभूसियो” (तत्रैव : पृ. १६), "वत्थाऽऽभरणभूसिओ" (बन्धुमतीलम्भ : पृ. १८), "सव्वालंकारभूसियसरीरो" (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३३), "अलंकारसुंदरीहि सुंदरीहिं" (केतुमतीलम्भ : पृ. ३५१), "चोइसरयणालंकारधारिणी” (तत्रैव : पृ. ३४५), “थोवमहग्याभरणो” (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७९), “कलहोय-कणक-मणिपज्जोतियाऽऽभरणभूसियंगी" (मदनवेगालम्भ : पृ. २४६), “महग्याऽऽभरणालंकिया" (नीलयशालम्भ : पृ. १७९) आदि ।
'वसुदेवहिण्डी' से यह सूचना उपलब्ध होती है कि तत्कालीन नागरिकों के घरों में अवसर-विशेष पर देवता रत्नों और मणियों की बरसा करते थे। रत्ल और मणियों से जड़े अलंकारों का भी बहुत अधिक प्रयोग होता था। संघदासगणी ने एक-से-एक उत्तम रलों का उल्लेख किया है। शान्तिनाथ के तीर्थंकराभिषेक के समय देवों ने उनके पिता के भवन में रलों की वर्षा की थी। (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४०)। इसी प्रकार, किसी भिक्षु को 'किमिच्छित' भक्त-पान से सन्तुष्ट करने पर देवता दाता के घर में आकाश से सुवर्ण-वृष्टि करते थे, जिसकी पारिभाषिक संज्ञा 'वसुधारा' थी। इसकी गणना पंचदिव्यों में होती थी। पारणार्थी साधु को प्रतिलाभित कराने पर देवताओं द्वारा पंचदिव्य उत्पादित करने की परम्परा थी। जैसे: पहले सुगन्धोदक की वर्षा होती थी; फिर पाँच रंग के फूल बरसाये जाते थे; उसके बाद सुवर्णवृष्टि की जाती थी और देवता दुन्दुभी बजाते थे; तदनन्तर वस्त्रों को उड़ाते थे और अन्त में 'अहो दानम् !' की ध्वनि करते थे (नीलयशालम्भः पृ. १६५)।
संघदासगणी के सूचनानुसार, उस युग के भोजनपात्र भी सुवर्ण, रत्न और मणि से निर्मित होते थे ("कणग-रयण-मणिभायणोपणीयं भोजणं"; प्रभावतीलम्भ : पृ. ३५२)। गणिकाओं के घरों में रत्न का पादपीठ होता था, जो गणिकाओं के चरण-संसर्ग से धन्य बना रहता था (कथोत्पत्ति: पृ. ४)। शरीर पर धारण किये जाने वाले अलंकारों की बात छोड़िए, प्राकारों और भवनों की दीवारें भी रत्न, सुवर्ण, रजत और मणियों से खचित रहते थे (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४१) । रत्नजटित भवनों में मणिकुट्टिम भी बने होते थे।
यों, संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में रनों की भूरिश: चर्चा की है, किन्तु नामत: उल्लिखित दो रल विशेष ध्यातव्य हैं। ये दोनों रल है: कुरुविन्द और श्रीवत्स । कथाकार ने नखशिख-वर्णन के क्रम में प्रशस्त जंघा को कुरुविन्द के वृत्त या आवर्त (गोलाई) से उपमित किया है। जैसे: “कुरुविंदाक्त्तसंठियपसत्यजंघो” (नीलयशालम्भ : पृ. १६२), “जंघा कुरुविंदवत्तसंट्ठियाओ" (भद्रमित्रा-सत्यरक्षितालम्भ : पृ. ३५३), "कुरुविंदक्त्ताणि जंघाणं" (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४४) आदि । 'प्राकृतशब्दमहार्णव' ने 'कुरुविन्द' की पहचान मणि-विशेष या रत्न की एक जाति के रूप में प्रस्तुत