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वसदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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चमकवाले मुकुट से निकलते मणिमयूख से दिशामुख रंजित हो उठा था; उनके कानों में कुण्डल झूल रहे थे, जो पूर्ण चन्द्रबिम्ब की तरह प्रतीत होते थे; उनके विशाल वक्षःस्थल पर उज्ज्वल सर्प के फण की भाँति हार सुशोभित था; उनकी दोनों भुजाएँ कटक (कड़ा) और केयूर से विभूषित थीं, जिससे वह इन्द्रधनुष से चिह्नित गगनदेश के समान दिखाई पड़ते थे; उनके गले से लटकते वस्त्रांचल में मोतियों के दाने जड़े हुए थे और वह रत्नविशेष की माला पहने हुए थे (तत्रैव, पृ. १३०) । संघदासगणी ने कटक के साथ ही 'त्रुटित' का भी उल्लेख किया है: “अह तत्थ चारुचंदो कुमारो कामपडागाय नट्टम्मि परितुट्ठो कडय-तुडियमादीणि सव्वाणि आभरणाणि छत्त-चामराओ य दलयइ” (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९३), अर्थात् कुमार चारुचन्द्र ने कामपताका के नृत्य (नृत्त) से परितुष्ट होकर उसे अपने कटक, त्रुटित आदि सारे आभरण और छत्र, चामर आदि भी दे दिये । इससे स्पष्ट है कि त्रुटित भी बाहु में पहनने का आभूषण- विशेष था। 'पउमचरिय' में भी पुण्यशाली मृदुमति और अभिराम देव के देवलोक में रहते समय दोनों को त्रुटित धारण किये हुए चित्रित किया गया है : “सुरबहुयामज्झगया दिव्वंगतुडियकुंडलाभरणा (८२.१०४)।”
वसुदेव की पत्नी बालचन्दा जब ललित गति से चलती थी, तब उसके विशाल जघनप्रदेश पर पड़ी मेखला (करधनी) बजने लगती थी ("मुहलमेहलकलावपडिबद्धाविउलजहणभर सीयमाणललियगमणा"; बालचन्द्रालम्भ, पृ. ३६७) । गन्धर्वकलाकुशला, पोतनपुर-नरेश की पुत्री भद्रमित्रा की विशाल श्रोणि सोने के कांचीदाम से बँधी थी (“कंचणकंचिदामपडिबद्धविपुलसोणी"; भ्रमित्रासत्यरक्षितालम्भ, पृ. ३५५)। वसुदेव की पत्नी प्रभावती मंगलनिमित्तसूचक एक लड़ी का हार अपने गले में धारण किये हुए दृष्टिगोचर हुई थी ("मंगलनिमित्तमेगावलिभूसियकंठगा"; प्रभावतीलम्भ, पृ. ३५१)। इसी प्रकार, केतुमती का कम्बुग्रीव भी भास्वर आभूषण से जगमग था ("भूषणभासुरकंबुग्रीवा"; केतुमतीलम्भ : पृ. ३४९) । वसुदेव की पत्नी बन्धुमती भी जब लग्नमण्डप में आई थी, तब उसका केशपाश चूड़ामणि के मयूख से रंजित था, उसके पीवर स्तन तरल हार से अलंकृत थे, वह कलधौत स्वर्ण का कुण्डल पहने हुए थी, लाल हथेलियोंवाली भुजाओं में मनोहर केयूर धारण किये हुए थी (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २८०)। स्वयं वसुदेव भी कानों में कनक-कुण्डल धारण करते थे ("कुंडलविलिहिज्जरमणिज्जसवणो"; पद्मालम्भ : पृ. २०४) ।
___ कृष्णपुत्र शाम्बकुमार जो मुकुट पहनता था, उसमें 'प्रतरक' (वृत्तपत्राकार आभूषण-विशेष) लगे रहते थे, जो चलते समय मुँह पर लटक आते थे। तभी तो बुद्धिसेन ने शाम्बकुमार से कहा था कि मुकुट के प्रतरक लटक आये हैं, उन्हें दोनों हाथों से ऊपर उठा लीजिए ("अज्जउत्त! मउडस्स पयरगाणि ललंति, दोहि वि हत्येहिं णं उण्णामेहि त्ति"; पीठिका, पृ. १०१)। कर्णपूर आभूषण धारण करने की प्रथा भी उस युग में अतिशय लोकप्रिय थी।
इस विवरण से स्पष्ट है कि उस काल में अलंकारों का प्रचुर प्रयोग होता था। स्त्री-पुरुष यदि कम अलंकारों का भी प्रयोग करते थे, तो वे अलंकार महाघ ही होते थे। मेघमाला धम्मिल्ल के पास बहुत कम, किन्तु बहुमूल्य आभूषणों को पहनकर आई थी ("थेव-महग्याभरणा"; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ७३) । धम्मिल्ल भी ललितगोष्ठी में सम्मिलित होने के लिए अनेक प्रकार के मणि-रत्न से शोभित (खचित) आभूषणों को पहन करके प्रस्थित हुआ था (तत्रैव : पृ. ६४)। उस समय के सभी राजा मुकुट धारण करते थे। कुन्थुस्वामी के चरणों में सिर झुकानेवाले राजाओं की मुकुटमणि की किरणों से उनका (कुन्थुस्वामी का ) पादपीठ रंजित रहता था: “पणयपत्यिवसहस्स