________________
३५६
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा यद्यपि, संघदासगणी ने घोड़े के दमन के लिए तैयार धम्मिल्ल को कूर्पासक और अोरुक पहने हुए चित्रित किया है (“कुप्पासयसंवुयसरीरो अद्धोख्यकयबाहिचलणो"; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ६७) । अमरकोश में 'अोरुक' और 'चण्डातक' स्त्रियों का वस्त्र माना गया है। अोरुक की व्याख्या की गई है : ऊोरीच्छादकमंशुकमोरुकम् अर्थात् आधी जाँघ ढकनेवाला वस्त्र अोरुक' है।
'वसुदेवहिण्डी' में प्रयुक्त वस्त्रों के उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट है कि उस युग में रुई और जान्तव रोमों से बने विभिन्न प्रकार के वस्त्रों का व्यवहार होता था। सफेद वस्त्रों के प्रति समधिक आग्रहशीलता के बावजूद रंग-विरंगे वस्त्रों का आकर्षण भी कम नहीं था। धम्मिल्ल के समीप मेघमाला जब आई थी, तब वह रक्तांशुक पहने हुए थी ('रत्तंसुयएक्कवसणा'; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ७३) । धम्मिल्ल ने भी विविध रंगोंवाले वस्त्रों को पहन कर उद्यान-यात्रा की थी (तत्रैव : पृ. ६४: “विविहरागवत्यवेसधारी अप्पाणं काऊण') । 'अनुयोगद्वारसूत्र', ३७ के अनुसार जान्तव या कीटज वस्त्र के पाँच प्रकार कहे गये हैं: पट्ट, मलय, अंसुग, चीनांसुय और किमिराग । संघदासगणी ने पट्ट, अंसुग और चीनांसुय जैसे रेशमी वस्त्रों के वर्णन के प्रति अधिक अभिरुचि प्रदर्शित की है। साथ ही, कौशेय (तसर के वस्त्र) और दुकूल की भी नामत: चर्चा की है। कथाकार ने वस्त्रों के विशेषण में 'महार्ह' 'महरिह' (बड़ों के योग्य) शब्दका प्रयोग बार-बार किया है। साथ ही, तैलाभ्यंग के समय पहने जाने वाले वस्त्रका भी उल्लेख किया है (पद्मालम्भ : पृ. २०५)। साथ ही, तैलाभ्यंग के समय पहने जानेवाले वस्त्र का भी उल्लेख किया है 'सिणेहधारणीयवस्थपरिहिओ; (पद्मालम्भ : पृ. २०४)। किन्तु, ध्यातव्य विषय यह है कि परवर्ती काल (विशेषतया बाणभट्ट के समय) में वस्त्रों का जितनी व्यापकता और विविधता के साथ उल्लेख हआ है, संघदासगणी के काल में उसका अभाव पाया जाता है। ___ अलंकरण : महान् कथाकार संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में तत्कालीन प्रयुक्त होनेवाले विविध रम्य अलंकरणों का उल्लेख किया है। एक नगर में कोई गणिका रहती थी। उसके पास वैभवशाली राजा, अमात्य और इभ्यपुत्र आया करते थे। ये जब गणिकागृह से वापस जाने लगते थे, तब गणिका की स्मृति के लिए उसके द्वारा पहने गये अलंकरण साथ ले जाते थे । (कथोत्पत्ति: पृ. ४) । इन अलंकरणों में हार, अर्द्धहार, कटक और केयूर होते थे। 'प्राकृतशब्दमहार्णव' के अनुसार, नौ लड़ियोंवाले हार को 'अर्द्धहार' कहा जाता था। कुण्डिनपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी मुट्ठी में समाने लायक ('करपरिमिय) अपने पुष्ट (पीन) स्तनों को 'वट्टहार' (वृत्तहार), यानी गोलाकार माला से सजाती थी ("करपरिमिय वट्टहारपहसिय-पीणथणजुयल . ."; पीठिका, पृ. ८०)।
संघदासगणी ने वसुदेव को अपने पास अनेक प्रकार के आभूषण रखनेवाला बताया है । वसुदेव ने चम्पापुरी के संगीताचार्य सुग्रीव की पत्नी को, संगीत-शिक्षणार्थी शिष्यों में अपने को सम्मिलित कराने के निमित्त आचार्य सुग्रीव से सिफारिश के लिए प्रधान (श्रेष्ठ) रत्न से दीप्त कटक प्रदान किया था (... माहणीए कडयं दिन्नं पहाणरयणदीवियं"; गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १२७) । चारुदत्त के मित्र गोमुख ने नालुकाप्रदेश पर जिस स्त्री (विद्याधरी) के पदचिह्न देखे थे, उससे अनुमान लगाया था कि वह स्त्री पैरों में नूपुर पहनती थी और कटि में किंकिणी (धुंघरुओं-क्षुद्रघण्टिकाओं से युक्त आभूषण-विशेष) भी धारण करती थी (“इमाणि इत्थिपयाणि खिखिणिमुहनिवडियाणि पण्हत्यणपुरकिंचिबिम्बाणि य दीसंति"; तत्रैव: पृ. १३६)। उस युग में स्वर्ण-कुण्डल और स्वर्ण-केयूर तो बहुप्रचलित आभूषण थे। विष्णुकुमार ने जब दिव्य रूप धारण किया था, तब उनके ग्रीष्मकालीन दोपहर के सूर्य की भाँति दुष्प्रेक्ष्य