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________________ ३४६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा अनुसार, चान्द्रायण व्रत एक विशिष्ट धार्मिक व्रत या प्रायश्चित्तात्मक तपश्चर्या है, जो चन्द्रमा की वृद्धि और क्षय से विनियमित है । इस व्रत में दैनिक आहार (जो १५ ग्रास या कौर का होता है) पूर्णिमा से प्रतिदिन एक - एक ग्रास घटता रहता है, यहाँतक कि अमावस्या के दिन नितान्त निराहार व्रत रखा जाता है । उसके बाद, फिर शुक्लपक्ष में एक कौर से आरम्भ करके पूर्णिमा तक बढ़ाकर फिर १५ ग्रास तक लाया जाता है। इसीलिए, इस शब्द की व्युत्पत्ति की गई है: “चन्द्रस्य अयनम् इव अयनम् अत्र ।” आजकल तो जनसाधारण के लिए एक दिन का उपवास करना भी कठिन होता है, जबकि उस युग में एक नहीं, अनेक चान्द्रायणिक (चान्द्रायण व्रत करने वाले) होते थे । संघदासगणी ने उपरिवर्णित संस्कारों के विविध आसंगों के माध्यम से प्राचीन भारतीय सामाजिक और धार्मिक संस्कृति की समृद्धि के भाव्याभव्य तथा सामान्य - विशिष्ट, अर्थात् उभयात्मक चित्रों को विपुल - विशाल पीठिका पर रूपांकित किया है। अबतक विभिन्न संस्कृतियों या संस्कारों के जितने सन्दर्भ उपस्थापित किये गये, वे प्राय: तीन कोटि के हैं : (क) राज्याश्रित संस्कार; (ख) अभिजातवर्गीय संस्कार तथा (ग) निम्नवर्गीय चेतनाश्रयी संस्कार । राज्याश्रित संस्कारों में मानव और विद्याधर दोनों प्रकार के राजाओं के संस्कार उद्भावित हुए हैं; अभिजातवर्गीय संस्कारों में सेठों और सार्थवाहों के संस्कारों को समुद्रभावित किया गया है तथा निम्नवर्गीय संस्कारों में 'अनुपशान्त' या मिथ्यात्व से मूर्च्छित जीवन जीनेवाले व्यक्तियों के हीनाचारों या स्वैराचारों का समाकलन हुआ है। इस हीन वर्ग में नरपति, विद्याधरपति, सेठ, सार्थवाह, पण्डित, परिव्राजक, पुरोहित, ब्राह्मण राजपुरुष, गणिका, नापित, गोप, यहाँतक कि व्यन्तरदेव आदि सभी प्रकार के सामाजिक सदस्य (स्त्री-पुरुष) सम्मिलित हैं । राज्याश्रयी संस्कारों में राजाओं या विद्याधरनरेशों की प्रशस्तियाँ गाई गई हैं एवं इस क्रम में उनके वास्तविक और काल्पनिक शौर्य, तथा उनकी वंश-परम्परा का अनुगानन हुआ है, या फिर उनकी दानशीलता तथा विद्याबल अनुशंसित हुआ है। इसी सन्दर्भ में उनके सौन्दर्य - प्रेम, विलास, सामन्तीय समृद्धि, अन्तःपुर के वैभव आदि का अनुकीर्त्तन हुआ है, जिसमें सहज श्रामण्य प्रवृत्ति के अनुसार धार्मिक अभिनिवेश का संयोजन तो हुआ ही है, प्रसिद्ध चरित्रों के भी अभिनव सन्दर्भ और विस्मयकारी नवीन रूपान्तर भी उपस्थित किये गये हैं । इसी प्रकार, अभिजातवर्गीय संस्कारों में जहाँ विलास - वैभव और चारित्रिक उत्कर्षापकर्ष का विनियोग हुआ है, वहीं निम्नवर्गीय संस्कारों में लोकधर्म की असंगतियाँ और विचित्रताएँ चित्रित हुई हैं। कुल मिलाकर, सामाजिक और धार्मिक संस्कारों के उद्भावन में कथाकार का लक्ष्य सामाजिक संरचना की नवीन क्षमता और स्फूर्ति का दिग्दर्शन एवं मानवीय आदर्श की उदात्तता का परिदर्शन है । इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' में चित्रित सांस्कृतिक चेतना को ब्राह्मणपरम्परा की प्रतिक्रिया की परिणति न कहकर नव्य जागरण की अभिव्यंजना कहना अधिक न्यायोचित होगा । जैन संस्कार : सामाजिक संघटन की एकता या उदात्तता के विरोधी तत्त्वों के प्रखर आलोचक संघदासगणी द्वारा उल्लिखित जितने संस्कारों पर अबतक दृष्टिनिक्षेप किया गया है, वे ब्राह्मण और श्रमणपरम्परा के प्राय: समान मूल्यों के उपस्थापक हैं; किन्तु उन्होंने विशुद्ध श्रमण - संस्कारों का भी सांगोपांग विवरण उपन्यस्त किया है, जो आगमसम्मत जैन संस्कारों का एकल प्रतिनिधित्व करते
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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