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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन उसकी उग्र प्रतिनिधि विषहरी ने साँप का रूप धारण कर चाँदों सौदागर के अन्तिम प्रिय पुत्र बाला लखीन्दर को सुहागरात में ही डंस लिया, जिससे उसकी सुहागघर में ही मृत्यु हो गई। किन्तु चाँदो सौदागर की पतोहू बिहुला ने नागदेवी की आराधना करके उसे प्रसन्न कर लिया। फलत:, नागदेवी से पति के पुनर्जीवन का वरदान उसे प्राप्त हुआ। और तब, बिहुला के बहुत अनुनय-विनय करने पर चाँदो सौदागर ने बेमन से, विना किसी विधि-विधान के, नागदेवी की पूजा की । नागदेवी इसी पूजा से ही सौदागर पर प्रसन्न हो गई और उसने उसका सर्वस्व पुन: यथावत् लौटा दिया।
संघदासगणी के संकेत से भी यह स्पष्ट है कि नागदेवता सुप्रसन्न होने पर मनोवांछित कामना पूरी कर देते थे। इस सम्बन्ध में ज्वलनप्रभ नाग की कथा (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३०३) भी स्मरणीय है। सगर के साठ हजार पुत्र दण्डरत्न से जमीन खोदकर, गंगा की धारा को उलटा प्रवाहित करके उसे जब अष्टापद पर्वत की खाई तक ले आये तब पातालवासी ज्वलनप्रभ नाग का भवन पानी से भरने लगा। फलतः, नाग रोषाग्नि से जल उठा। वह फुफकारता हुआ बाहर निकला और जह्न प्रभृति साठ हजार सगर-पुत्रों को अपनी दृष्टि की विषाग्नि से जलाकर भस्म कर दिया। अन्त में, राजा सगर की आज्ञा से उसके बालक पुत्र भागीरथि (भगीरथ) ने अर्घ्य, बलि, गन्ध, माल्य और धूप से नाग की पूजा की। पूजा मिलते ही नाग प्रसन्न हो गया और उसने, भारतवर्ष के अपने सभी वशंवद नागों के. भागीरथि (भगीरथा के प्रति अनकल रहने का आश्वासन दिया।
संघदासगणी के समय में कौमुदी-चातुर्मासिक महोत्सव मनाया जाता था। उसकी सन्दर्भ में चैत्योत्सव मनाने की भी प्रथा थी। चम्पानगरी के निवासी, कौमुदी-चातुर्मासिक के अवसर पर, अंगमन्दिर-उद्यान के जिनायतन में प्रतिष्ठित जिन-प्रतिमा पर फूल चढ़ाते थे। साथ ही, रमणीय झरनों और वनराजियों से सुशोभित उद्यान का भ्रमण करते थे। उसी उद्यान के समीप 'रजतबालुका' नदी बहती थी, जिसके तट पर विभिन्न पुष्पवृक्ष थे, जो फूलों से लदे रहते थे (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३४) । सम्भवतः, यह प्राचीन कौमुदी-महोत्सव या शारदोत्सव का ही रूपान्तर है, जो लगातार चार महीनों तक मनाया जाता था। ___ 'वसुदेवहिण्डी' सूचित करती हैं कि उस प्राचीन युग के भारतवर्ष में गोपूजा की प्रथा भी लोकादृत थी। बालक कृष्ण जब व्रज में नन्द-यशोदा के तत्त्वावधान में पल-बढ़ रहे थे, तब एक दिन, सफेद वस्त्र पहने हुई, अनेक स्त्रियों से घिरी देवकी गोमार्ग की पूजा करती हुई पुत्र को देखने व्रज में गई । चूँकि उस उपाय से अनिष्ट का निग्रह (निवारण) होता है, इसलिए उसी समय से, जनपदों में गोमार्ग की पूजा (गोपूजा) की प्रथा चल पड़ी (देवकीलम्भ : पृ. ३६९) ।
उस युग में चान्द्रायण और पौषधव्रत का बड़ा महत्त्व था। दीक्षाकामी स्त्री-पुरुष इन दोनों व्रतों को करते थे। वैराग्यभावापन्न राजा नलिनकेतु जब राजर्द्धि का परित्याग कर क्षेमंकर जिन के निकट प्रवजित हो गया और तप करके निर्वाणगामी हुआ, तब उसकी प्रकृतिभद्र पली प्रभंकरा भी मृदुता और ऋजुता से सम्पन्न होकर चान्द्रायण और पौषधव्रत करके आर्या सुस्थिता के निकट दीक्षित हो गई (केतुमतीलम्भ : पृ. ३३१)। ज्ञातव्य है कि ये दोनों व्रत उपवास (निराहार-व्रत) से जुड़े हुए हैं। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथि में करने योग्य जैनश्रावक के
आहारत्याग के व्रत को पौषध कहा गया है; किन्तु चान्द्रायण-व्रत या कृच्छचान्द्रायण-व्रत ब्राह्मण-परम्परा में भी प्रचलित रहा है। याज्ञवक्यस्मृति (३.३२४) तथा मनुस्मृति (११.२१७) के