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वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की बहत्कथा
में कुशासन का व्यवहार अधिक होता था। ("सिरिविजयो वि दब्भसंथारोवगतो सत्तरतं. ... पोसहं पालेइ”; पृ. ३१६) किन्तु, मुनियों के लिए काष्ठासन विहित था (प्रतिमुख: पृ. ११०)।
नैष्ठिक कथाकार ने किसी शुभकार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व हाथ-पैर धोने और पूर्वाभिमुख होकर आचमन करने के विधान का भूयश: उल्लेख किया है। चारुदत्त ने अपने मित्रों द्वारा प्रदत्त कमल के पत्ते के दोने में रक्षित मधु को अमृत मानकर पीने के पूर्व हाथ-पैर धोकर पूरब की
ओर मुँह करके आचमन (“पक्खालियपाणि-पाओ य आयंतो य पाईण- मुहो') किया था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४२) । पूजापाठ के समय शंख बजाने की भी प्रथा थी। छा स्त्री का रूप धरकर दुष्ट अंगारक वसुदेव का सुप्तावस्था में अपहरण करके जब उन्हें आकाश में उड़ा ले गया और वसुदेव के प्रहार करने पर उसने उन्हें अधर में छोड़ दिया, तब वह एक अनजान झील में आकर गिरे। झील से बाहर निकलकर उन्होंने विश्राम किया। विश्राम की घड़ी में ही उन्होंने शंख की आवाज सुनी, जिससे अनुमान लगाया कि अवश्य ही आसपास में कोई नगर है। सुबह होने पर वह इलावर्द्धन नगर पहँचे (रक्तवतीलम्भ : १. २१७)।
- चम्पानगरी (वर्तमान बिहार-राज्य के भागलपुर का उपनगर) में नागपूजा की परम्परा की और भी कथाकार ने दृक्पात किया है। धम्मिल्ल दिन के अन्तिम प्रहर में, जब चम्पानगरी के राजपथ पर चल रहा था, तभी उसने वहाँ, राजमार्ग के निकट ही नागमन्दिर देखा, जिसका द्वार आधा बन्द था। वहाँ दीपक जल रहा था। कालागुरु धूप की सुगन्ध फैल रही थी। धम्मिल्ल उस नागमन्दिर में प्रविष्ट हुआ और नागदेवता को प्रणाम करके बैठा। उसी समय उसने उभरते नवीन यौवनवाली बालिका को वहाँ उपस्थित देखा। उसके साथ एक परिचारिका भी थी। वह बालिका चम्पानगरी के सार्थवाह नागवसु की पुत्री नागदत्ता थी। देवकुल में अर्चना के निमित्त आई हुई वह बालिका अपने हाथ-पैर धोकर नागमन्दिर में प्रविष्ट हुई । उसने नागेन्द्र की पूजा की और उन्हें प्रणाम करके अपने अभिलषित वर की याचना की (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ६५)। ___ ज्ञातव्य है कि चम्पानगरी में आज भी प्रतिवर्ष श्रावण की शुक्लपंचमी (नागपंचमी) के अवसर पर, 'बिहुला-विषहरी के पूजा-महोत्सव के रूप में, नागपूजा का त्योहार सोल्लास मनाया जाता है। प्रचीन कथा है कि चम्पानगर का चाँदो सौदागर कट्टर शिवभक्त था। किन्तु, नागदेवी मनसा भी उससे अपनी पूजा चाहती थी। किन्तु, चाँदो सौदागर नागदेवी की अवहेलना करता था। फलस्वरूप, सौदागर का सर्वस्व नष्ट हो गया। नागदेवी के रोष के कारण उसका माल-असबाब से लदा जहाज भी जलमग्न हो गया। फिर भी, उसने नागदेवी की पूजा करना स्वीकार नहीं किया। नागदेवी का क्षोभ बढ़ता चला गया। यहाँतक कि नागदेवी के द्वारा प्रेरित
१. चाँदी सौदागर की कथा को ही 'बिहुला-विषहरी' के नाम से काव्यनिबद्ध किया गया है। शैवों पर शाक्तों
की विजय ही इस काव्य का मूल अन्तरंग कथ्य है। ' बिहुला-विषहरी' भागलपुर-प्रमण्डल की उपभाषा अंगिका में प्राप्त प्राचीनतम एवं अतिशय करुण लोकगाथा-काव्य है। अंगिका-भाषी जनता के कण्ठ हार इस काव्य को पढ़ते समय कोई भी पाठक अश्रुविगलित हुए विना नहीं रहता। सुहागरात में अपने पति बाला लखीन्दर के सर्पदष्ट होने पर, सुहाग की पहली रात की नवोढा बिहुला के व्यथा-विह्वल विलाप का प्रसंग तो बहुत ही हृदयद्रावक है। शोधकों का अनुमान है कि प्रस्तुत करुण लोकगाथा की रचना अनुमानतः १६वीं शती में चौपाईनगर (वर्तमान चम्पानगर, भागलपुर) में हुई। इसका रचनाकार अज्ञात है। इससे संघदासगणी द्वारा संकेतित चम्पानगर में नागपूजा की परम्परा का सबल समर्थन होता है। ले.