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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन और उसी नगरी में एक मायावी भैंसे के रूप में उत्पन्न हुआ। महेश्वरदत्त की माता बहुला मायाचार में कुशल होते हुए भी शुचिता का प्रदर्शन करनेवाली थी, जो पतिशोक से मरकर उसी नगरी में कुतिया के रूप में जनमी।
महेश्वरदत्त की पत्नी गंगिला गुरुजनों से रहित घर में स्वच्छन्द रूप से इच्छित पुरुष को संकेत देकर बुलाती थी और सन्ध्या में उसकी प्रतीक्षा करती थी। जब वह उपपति हथियार के साथ गंगिला के पास आया, तब महेश्वरदत्त ने उसे देख लिया। उस जारपुरुष ने आत्मरक्षार्थ महेश्वरदत्त को मार डालना चाहा। किन्तु, महेश्वरदत्त ने बड़ी सफाई से उसपर जोरदार प्रहार किया। आहत जारपुरुष थोड़ी ही दूर जाकर गिर पड़ा तथा विरक्त भाव से अपने दुर्भाग्य तथा अनाचार की निन्दा करता हुआ मर गया और गंगिला के गर्भ से उसके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। सालभर का होने पर उसने जाना कि वह महेश्वरदत्त का प्रिय पुत्र है।
एक बार, महेश्वरदत्त ने अपने पिता के श्राद्ध ('पिउकिच्चे) के निमित्त पूर्वोक्त भैंसे (समुद्र का अपर भव) को खरीदकर मार डाला और इस प्रकार अपने पिता के श्राद्ध के लिए अपने पिता (महिष-रूप) का ही मांस पकाकर लोगों को भोजन कराया। दूसरे दिन महेश्वरदत्त ने भी अपने उस पिता के अवशिष्ट मांस और मज्जा का आस्वाद लिया और वह पुत्र (पूर्वभव का गंगिला का उपपति) को गोद में लिये हुए बाहर गया तथा उस कुतिया (पूर्वभव की माता) के सामने भी मांस के कुछ टुकड़े फेंक दिये। कुतिया भी सन्तुष्ट होकर उन्हें खाने लगी।
इस प्रकार श्राद्धभोज के नाम पर पति का मांस पत्नी ने, पिता का मांस बेटे ने और एक दायाद का मांस उसके अन्य दायादों ने खाकर अतिशय निन्दनीय कार्य किया। अज्ञानतावश, अपने पिता के श्राद्ध के निमित्त किया गया वह भोज, स्वजन-परिजन-सहित महेश्वरदत्त के लिए कर्मबन्ध का कारण बना और पिता के लिए उपकारी होने की अपेक्षा अपकारी सिद्ध हुआ। फलत:, लोकदृष्टि की विषमता के कारण श्राद्धकार्य या पितृकृत्यमूलक अन्नपान-दान श्राद्धकर्ता की अपनी अन्धभक्ति के अलावा और कोई मूल्य नहीं रखता। संघदासगणी के शब्दों में यह सब कुछ 'अकार्य ('अकज्जं ति) है।
अन्याय धार्मिक कृत्य :
संघदासगणी ने तत्कालीन यथाप्रचलित अन्यान्य अनेक धार्मिक कृत्यों पर भी प्रकाश-निक्षेप किया है, जिनमें दान-पुण्य, पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार आदि प्रमुख हैं। उस युग के राजा "किमिच्छित' दान, अर्थात् दाता और ग्रहीता की इच्छापूर्ति के अनुकूल दान करते थे (नीलयशालम्भ : पृ. १७६)। प्रव्रज्या तथा मृत्यु के पूर्व तो 'किमिच्छित' दान करने की सर्वसामान्य प्रथा थी। उस समय के लोगों में पूजा-पाठ की सहज प्रवृत्ति थी। चारुदत्त अपने मित्रों के साथ जंगल से निकलकर जब अंगमन्दिर-उद्यान में पहुँचा, तब वहाँ जिनायतन के भीतर गया। नौकर के बच्चे फूल ले आये। उस चारुदत्त ने मित्रों के साथ मिलकर फूलों से जिन-प्रतिमा की पूजा और स्तुतियों से वन्दना की। यों, उस युग में भी स्नान और पूजा के बाद ही भोजन करने की सामान्य नियम था ("ण्हाया कयबलिकम्मा भुत्तभोयणाणं गतो दिवसो”; गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४०) और पूजा के आसन