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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' में उक्त शवदाह-संस्कार के अलावा और भी कतिपय अग्नि-संस्कारों का उल्लेख हुआ है। धनपुंज नाम के चोर ने मरते समय अपने वधकर्ता अगडदत्त से कहा था (ध.हि., पृ. ४४) कि मेरे मरने के बाद तुम, मेरा अग्निसंस्कार कर देना ("मम य अग्गिसक्कारं करेहि ) । वसुदेव जिस समय अपनी मृत्यु का मिथ्यापवाद फैलाकर भाग निकले थे, उस समय उनके नवों भाई महल से निकलकर श्मशानभूमि में आये । वहाँ उन्होंने वसुदेव के हाथ का लिखा क्षमापण-पत्र पढ़ा। वसुदेव ने एक अनाथ मृतक को चिता पर रखकर उसमें आग लगा दी थी और श्मशान में छोड़े गये (किसी मृत सधवा स्त्री के) अलक्तक- रस से अपने भाइयों और भाभियों के नाम क्षमापण-पत्र में लिखा था कि “मेरा शुद्ध स्वभाव होते हुए भी उसे नागरिकों ने मलिन कर दिया, इसलिए मैं अग्नि में प्रवेश करता हूँ।” क्षमापण- पत्र पढ़कर वसुदेव के भाई रोने लगे। कुछ देर रोने-धोने के बाद उन्होंने घी और शहद से चिता को सींचा, फिर चन्दन, अगुरु और देवदारु की लकड़ियों से चिता को ढककर उसे फिर से प्रज्वलित किया। उसके बाद वे प्रेतकार्य, यानी और्ध्वदेहिक कृत्य करके घर लौट आये (श्यामा - विजयालम्भ: पृ. १२१) । राम को भी वन में जब भरत के द्वारा अपने पिता की मृत्यु का समाचार मिला, तब उन्होंने प्रेतकृत्य किया था ('कपपेयकिच्चो मदनवेगालम्भ : पृ. २४२) । यहाँ प्रेतकृत्य, दाह-संस्कार के बाद की जलांजलि या तर्पण कार्य का संकेतक है। " ३४२ संघदासगणी ने मृत व्यक्ति के पितृकृत्य या श्राद्ध का विकृत रूप भी उपस्थित किया है तथा श्राद्ध में महिष-मांस के भोज की प्रथा की ओर भी संकेत किया है। इस सम्बन्ध में कथाकार ने बू और प्रभव के संवाद के रूप में एक उद्वेजक कथा लिखी है (कथोत्पत्ति : पृ. १४) । प्रभव जब संसारविरक्त जम्बू से लोकधर्म की सिद्धि और पितृ ऋण से मुक्ति के निमित्त प्रयत्न करने का आग्रह किया, तब जम्बू ने कहा कि जीव अपने किये कर्म का फलभागी होता है। जन्म की पराधीनता की भाँति आहार भी अपने कर्म के अनुरूप ही प्राप्त होता है। श्राद्ध और पिण्डदान की निरर्थकता के प्रदर्शन के लिए कथाकार ने जम्बू के मुख से कहलवाया है कि पुत्र के श्राद्ध और पिण्डदान करने से उसके मृत पिता के स्वर्ग जाने की बात सत्य नहीं है । भवान्तर में गये हुए पिता के लिए पुत्र द्वारा उपकार - बुद्धि से किया गया कार्य भी अपकार में परिणत हो जाता है। जीव के, स्वयंकृत कर्म के फलभागी होने के कारण पुत्र की ओर से प्रदत्त तर्पण - सामग्री पिता को नहीं प्राप्त हो सकती है । मृत पिता की तृप्ति के लिए पुत्र जो पिण्डदान आदि करता है, वह उसकी भक्तिमात्र होती है। और फिर, पुत्र द्वारा निवेदित अन्नपान अचेतन होने के कारण मृत पिता के निकट पहुँच भी तो नहीं सकता । पुनः, जो निर्वंश या निराधार पितर होते हैं, वे अतृप्त रहकर अपने पूरे भविष्य को किस प्रकार जीते हैं ? फिर, जिसके पिता या पितामह मृत्यु के बाद अपने कर्मयोग से चींटी अथवा कीड़ा के रूप में उत्पन्न होते हैं, उनके लिए वह यदि जलदान करता है या जलांजलि देता है, तो उसने उनका उपकार या अपकार किया, यह कैसे समझा जा सकता है ? इस प्रकार, लोकधर्म की सिद्धि और पितृ ऋण से मुक्ति के लिए पुत्र द्वारा किया जानेवाला श्राद्धकार्य असंगत ही सिद्ध होता है । श्राद्धविषयक अपने इस सिद्धान्त का विवेचन करते हुए जम्बू ने प्रभव से जो विचित्र कथा सुनाई, वह इस प्रकार है : ताम्रलिप्ति नगरी में महेश्वरदत्त नाम का व्यापारी रहता था। उसके पिता का नाम समुद्र था, जो धन के संचय, संरक्षण और परिवृद्धि के लोभ से अभिभूत हो मर गया
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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