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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा दक्षिणा के साथ अर्पित की थीं। यद्यपि, वसदेव ने कन्याएँ स्वीकार नहीं की, फिर भी कन्याओं ने जीवन-भर के लिए उन्हें ही अपना पति मान लिया (मित्रश्री-धनश्रीलम्भ : पृ. १९७)। पूर्ववर्णित गणिका की उत्पत्ति के प्रसंग में प्राप्त, सामन्तों द्वारा भरत की सेवा में कन्याओं को भेजने की कथा (पीठिका: पृ. १०३) भी युवतियों को उपहार में देने की तत्कालीन प्रथा का ही संकेत करती है। फिर, परिचारिकाओं को उपहार या दहेज में देने की बात भी तो इसी प्रथा का स्पष्ट उदाहरण है। कहना न होगा कि उस युग में स्त्रियाँ सच्चे अर्थ में अपने कलत्र' पर्याय को सार्थक करती थीं। भर्तृहरि ने कलत्र की परिभाषा में कहा है कि “यद् भत्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम्”; (२.६८) । अर्थात्, तत्कालीन स्त्रियाँ अपने स्वामी की हितकामना में ही निरन्तर समर्पित थीं। . 'वसुदेवहिण्डी' से संकेत मिलता है कि तद्युगीन पाणिग्रहण आदि समस्त सांस्कृतिक कार्य कुलकरों की आज्ञा से ही सम्पन्न होते थे या इस सम्बन्ध में सभी प्रकार के निर्णय कुलकरों के ही अधीन होते थे। निस्सन्देह, ये कुलकर ही तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों के नियामक नियन्त्रक थे। कृष्ण ने सन्तानदाता देवता हरिनैगमेषी की आराधना के निमित्त, आठ दिनों का उपवास करने के लिए, पौषधशाला में जाने के पूर्व, इसकी सूचना कुलकरों को दी थी ("कुलगरविदितं काऊण द्वितो पोसहसालाए अट्ठमण भत्तेण"; पीठिका : पृ. ९७) । ये कुलकर 'यादववृद्ध' भी कहलाते थे। ये यादववृद्ध कभी-कभी अपनी निष्पक्षता से विचलित भी हो जाते थे। ऐसी स्थिति में इन्हें आलोचना का पात्र भी बनना पड़ता था. सत्यभामा के पुत्र भानु के विवाह-कौतुक में दर्भकार्य के लिए जब ये रुक्मिणी के केशों को माँगने नाइयों के साथ आये ते, तब प्रद्युम्न ने इन्हें ललकारा था : “मैं पूछता हूँ, यादवों का यह कौन-सा कुलाचार है कि वे विवाह में (कुलरमणियों के) केशों से कौतुक करते हैं?" इस बात पर यादववृद्धों को लज्जित होना पड़ा था (पीठिका : पृ. ९६)।
संघदासगणी ने नाइयों को 'काश्यप' संज्ञा से अभिहित किया है। वर-परिकर्म के क्रम में नाई ने वसुदेव का नखकर्म (नहछू) किया था “कासवेण य कयं नखकम्म” (पुण्ड्रालम्भ : पृ. २१३)। इसी प्रकार, वल्कलचीरी के वर-परिकर्म के सन्दर्भ में गणिका ने काश्यप को बुलवाकर, वल्कलचीरी के न चाहते हुए भी उसका नख-परिकर्म कराया था : ("तीए य कासवओ सद्दाविओ। तओ अनिच्छंतस्स कयं नहपरिकम"; कथोत्पत्ति : पृ. १८) । नहछू भारतीय विवाहसंस्कार की परम्परागत विधि है। गोस्वामी तुलसीदास ने तो राम की नहछू-विधि पर 'रामललानहछू' नाम की काव्यकृति की ही रचना कर दी है।
शवदाह और श्राद्ध : । संघदासगणी ने प्राचीन युग में प्रचलित शवदाह या अग्नि-संस्कार (अन्त्येष्टि) और श्राद्धविधि पर भी प्रचुर प्रकाश डाला है। ऋषभस्वामी के निर्वाण प्राप्त करने के बाद उनके पार्थिव शरीर का अन्त्येष्टि-संस्कार बड़े सम्मान के साथ विधिवत् किया गया था। संघदासगणी ने लिखा है (नीलयशालम्भ : पृ. १८५) कि भगवान् जगद्गुरु ऋषभस्वामी ने निन्यानब्बे हजार पूर्व तक केवली अवस्था में विहार करके चौदह भक्त उपवासपूर्वक माघ महीने की कृष्ण-त्रयोदशी को, अभिजित् नक्षत्र में, अष्टादश पर्वत पर, दस हजार साधुओं, निन्यानब्बे पुत्रों तथा आठ पौत्रों