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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन श्रेणी का माना जाता था। इसमें किसी सोई हुई, प्रमत्त या पागल कन्या का, उसकी स्वीकृति के विना, कौमारहरण कर लिया जाता था।
वसुदेव का सभी पत्नियों के साथ विवाह प्राय: ब्राह्मविधि से ही सम्पन्न हुआ था। उन्हें सभी कन्याएँ वस्त्राभूषण और अतुल धन-वैभव के साथ उपलब्ध हुई थीं। आश्रमवासी वल्कलचीरी का वेश्यापुत्री के साथ विवाह दैव विवाह में परिगणनीय है । वल्कलचीरी अपना आश्रम खोजने के क्रम में भटकता हुआ जब गणिकागृह में जा पहुँचा, तब गणिका ने नाई को बुलवाकर उसका नखकर्म (क्षौरकर्म) कराया और उसके शरीर से वल्कल हटवा दिया और वस्त्राभूषण पहनवाकर अपनी पुत्री से विवाह करा दिया था (कथोत्पत्ति : पृ. १८)। इसी प्रकार जमदग्नि के साथ रेणुका का विवाह आर्ष विवाह का प्रतिरूप है। क्योंकि, जमदग्नि को रेणुका के साथ विवाह के लिए कन्याशुल्क चुकाना पड़ा था ("मंतीहिं भणियं-कुमारीण पएहिं अचलिएहिं सुकं दायव्वं"; मदनवेगालम्भ : पृ. २३७) । विवाह में ध्रुवदर्शन कराने का सन्दर्भ प्राजापत्य विवाह से जुड़ा हुआ है; क्योंकि ध्रुवदर्शन या सप्तपदी के प्राय: सभी मन्त्रों में वर और कन्या के परस्पर गार्हस्थ्य-धर्म पालन करने की प्रतिज्ञा का वर्णन किया गया है। इससे सिद्ध है कि वसुदेव का अपनी कई पनियों के साथ ध्रुवदर्शन-कार्य उनके द्वारा किये गये ब्राह्मणोचित प्राजापत्य विवाह की ओर संकेत करता है।
आसुर विवाह को 'उद्वाह' इसलिए कहा जाता था कि इसमें असवर्णा कन्या के साथ विवाह होता था। मनु ने कहा है: “असवर्णास्वयं ज्ञेयो विधिरुद्वाहकर्मणि (३.४३)।” स्वयं वसुदेव ने मातंगकन्या नीलयशा और फिर कामदेव सेठ की पुत्री बन्धुमती या भद्र सार्थवाह की कन्या रक्तवती से असवर्ण विवाह ही तो किया था। यों, उस काल में प्रतिलोम विवाह भी प्रचलित था; क्योंकि स्वयं वसुदेव ने क्षत्रिय होकर सोम ब्राह्मण की पुत्री धनश्री से विवाह किया था। वसुदेव अपनी पलियों में अन्यतम मित्रश्री के आग्रह पर सोम ब्राह्मण के गूंगे लड़के की शल्य-चिकित्सा करके उसे वेद पढ़ने के योग्य ('विसदवाणी) बनाया था, इसी से सन्तुष्ट होकर सोम ब्राह्मण ने वसुदेव को अपनी पुत्री धनश्री अर्पित कर दी थी (मित्रश्री-धनश्रीलम्भ : पृ. १९८) । धम्मिल्ल ने गणिका-पुत्री वसन्ततिलका, विमलसेना आदि के साथ परस्पर प्रेम से प्रेरित होकर गान्धर्व विवाह किया था। वसुदेव ने भी प्रियंगुसुन्दरी के साथ गान्धर्व विवाह किया था : “ततो हं गंधव्वेण विवाहधम्मेण कण्णं विवाहेऊण अतुले तत्थ भोए भुंजामि (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३०७)।” धम्मिल्ल ने भी मेघमाला से गान्धर्वविवाह ही किया था: “सा य णेणं...गंधव्वेण विवाहधम्मेण विवाहिया (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ७३)।” कहना न होगा कि प्राचीन युग में गान्धर्व विवाह का बहुत अधिक प्रचलन था। कालिदास (ई. पू. प्रथम शती) ने भी अपने प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में दुष्यन्त और शकुन्तला के परस्पर प्रीतिवश गान्धर्व विवाह कर लेने का उल्लेख किया है।
'वसुदेवहिण्डी' क्षत्रियोचित राक्षस-विवाह का तो बृहत्कथाकोश ही है। अगडदत्त ने अपने धनुर्वेद-शिक्षक दृढप्रहारी के पड़ोसी गृहपति यक्षदत्त की पुत्री श्यामदत्ता का बलात् अपहरण १. द्र. तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३. ७. ७. ११-१२ : . . . “सखायः सप्तपदा अभूम । सख्यं ते गमेयम् । सख्यात्ते मा योषम् । सख्यान्मे मा योष्ठाः।” धुवदर्शन के मन्त्रों के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का 'ज्योतिष-विद्या'-प्रकरण
द्रष्टव्य। २. संघदासगणी ने पड़ोसी के लिए 'अन्तेवासी' शब्द का प्रयोग किया है : “अहं चारुसामि ! सुरिंददत्तो नाम नावासंजत्तओ तुम्हं अंतेवासी (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ.१४५-१४६)।” संस्कृत में अन्तेवासी' शब्द बहुधा शिष्य के अर्थ में प्रयुक्त है।