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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३३३ से होकर स्वयंवर-मण्डप में पधारने का वर्णन अतिशय उदात्त है (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१४) । राजा बलदेव ने अपनी रूपवती पुत्री सुमति के लिए सौ खम्भों वाले स्वयंवर-मण्डप की रचना कराई थी (तत्रैव : पृ. ३२७)। उस युग में स्वयंवर-मण्डप में कन्याओं के पधारने का भी अपना वैशिष्ट्य था। कन्या सुमति ने स्नान और बलिकर्म (पूजाविधि) समाप्त करके आग्रहपूर्वक अपने को अलंकृत किया था और तने हुए श्वेत छत्र के नीचे चलती हुई स्वयंवर में उपस्थित हुई थी। स्वयंवर में वरमाला हाथ में लिये हुए कन्याओं के साथ लिपिकरियाँ या लेखिकाएँ रहती थीं। वे कन्याओं को, उपस्थित प्रत्येक राजा के कुल, शील, रूप और ज्ञान के बारे में बताती थीं। (“ततो तासिं पत्तेयं लिवीकरीओ कहिंति कुलसीलरूवाऽऽगमे णरवतीणं"; तत्रैव : पृ. ३१४; लेहिया से दंसेइ रायाणो...उत्तमकुल-सीलाऽऽगम-रूवसंपन्ने"; रोहिणीलम्भ : पृ. ३६४) ।
संघदासगणी ने स्वयंवर में उपस्थित कन्याओं द्वारा स्वाभीप्सित वर के निर्वाचन की विधि का बड़ा विशद और भव्य बिम्बोत्पादक वर्णन किया है। दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं :
१. स्वयंवर-मण्डप में शिविका से दोनों कन्याएँ, (ज्योतिष्प्रभा और सुतारा) उतरीं । विस्मित राजाओं ने अपने सुन्दरतम नेत्रकमलों से उन्हें विशिष्ट भाव से देखा। उसके बाद, लिपिकरियों ने उन दोनों कन्याओं को, उपस्थित प्रत्येक राजा के कुल, शील, रूप और ज्ञान के बारे में बताना प्रारम्भ किया। वे दोनों भी अपनी-अपनी दृष्टि से राजाओं को निहारती हुई, पूर्व और पश्चिम समुद्र के पास पहुँची हुई गंगा और सिन्धु की भाँति क्रमश: अमिततेज और श्रीविजय के निकट उपस्थित हुईं और वे उनपर अपनी-अपनी दृष्टि स्थिर कर खड़ी हो गईं। उन (राजपुत्रों) के हृदय में प्रसन्नता . छा गई। फिर, उन कन्याओं ने रत्न और फूलों की मालाओं से अपने-अपने वर की पूजा की। इसपर उपस्थित राजाओं ने कहा : “ओह ! उत्तम कोटि का वरण हुआ है ! पायस में घी की धाराएँ गिरी हैं और उद्यम के साथ सिद्धियाँ आ मिली हैं (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१४)।
२. कंचुकियों और वृद्धजनों से घिरी हुई, सम्पूर्ण चन्द्रबिम्ब के आकारवाले छत्र के नीचे चलती हुई, जिसके दोनों ओर सफेद चँवर भी डुलाये जा रहे थे, दूसरी रति के समान रोहिणी स्वयंवर-भूमि में पधारी। लेखिका (परिचायिका दासी) ने क्रमश: उत्तम कुल, शील, शास्त्रज्ञान और रूप से सम्पन्न राजाओं की ओर संकेत करके उनका परिचय देना प्रारम्भ किया। उसके बाद कमलाक्षी, पूर्णचन्द्रमुखी, पयोधर-भार से क्लेश पाती हुई, कमलदल जैसे कोमल पैरों से चलती हुई तथा रूपातिशय के कारण अनुरक्त राजाओं की नेत्रपंक्ति से परिगृहीत रोहिणी की आँखें उन राजाओं के प्रति अनासक्त ही रहीं, फिर जिस प्रकार कुवलयश्री कमलवन का आश्रय लेती है, उसी प्रकार वह वसुदेव के पास जा लगी। उसके बाद उसने उनके गले में पुष्पदाम (पुष्पमाला) डाल दिया और अपनी रूपराशि से उनके हृदय को भी बाँध लिया तथा उनके मस्तक पर अक्षत छींटकर खड़ी हो गई (रोहिणीलम्भ : पृ. ३६४) । ___यहाँ ध्यातव्य है कि उक्त लिपिकरियाँ बड़ी प्रगल्भ और वाक्पटु तथा पण्डिता होती होंगी, तभी तो वे स्वयंवर में उपस्थित विभिन्न राजाओं के सांस्कृतिक प्रामाणिक परिचय धारावाहिक रूप में प्रस्तुत कर पाती होंगी। संघदासगणी ने सूचना दी है कि स्वयंवर के बाद, शेष राजाओं को सम्मानित करके विदा किया जाता था, किन्तु कभी-कभी कन्या के पिता और पति को स्वयंवर में उपस्थित क्षुब्ध राजाओं के भयंकर आक्रमण का भी सामना करना पड़ता था। रोहिणी द्वारा वसुदेव