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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
के अवसर पर विशाल सांस्कृतिक वैभव का प्रदर्शन होता था । विवाह की घड़ी में मन्त्रज्ञ पुरोहित हवन करते थे और उपाध्याय मन्त्रित दर्भयुक्त हाथों से सोने की झारी लेकर सिद्धार्थोदक (सर्षप - मिश्रित जल) से वर का अभिषेक भी करते थे । विवाह के समय सर्वार्थसिद्धि शिला पर वर को बैठाया जाता था। विवाह करानेवाले ब्राह्मण जब धुले उजले कपड़े पहनते थे, तब उनका पुष्ट शरीर श्वेत कर्णिकार के केसर की तरह दिपने लगता था । कथाकार ने विवाह - विधि में स्नान, अभिषेक और हवन-संस्कार पर विशेष आग्रह प्रदर्शित किया है।
इस प्रकार, गन्धर्वदत्ता के साथ विवाह की वेला में भी, वरकौतुक होने के बाद लग्नमण्डप में वसुदेव ने विधिपूर्वकं अग्नि में हवन किया था ("तओ विहिणा हुओ हुयवहो", गन्धर्वदत्तालम्भ : १३२) और मंगलाचारपूर्वक वह अपनी नवोढा पत्नी के साथ गर्भगृह में प्रविष्ट हुए थे। इससे स्पष्ट है कि सुहागरात के शयन की व्यवस्था गर्भगृह में ही होती थी और वर-वधू मुदित मन से प्रथम मिलन में रतिसुख प्राप्त करते थे । विवाह के बाद वर-वधू गृह्यसूत्रोक्त विधि के अनुसार ध्रुवदर्शन करते थे। वसुदेव द्वारा कपिला और बन्धुमती के साथ विवाह की रात्रि में ध्रुवदर्शन करने का उल्लेख (कपिलालम्भ : पृ. २०० तथा बन्धुमतीलम्भ: पृ. २८०) संघदासगणी ने किया है । प्रत्येक पत्नी के साथ वसुदेव के विवाह के प्रसंग में, वर-वधू द्वारा एक साथ अग्नि में हवन, अग्नि की प्रदक्षिणा, लाजांजलि बिखेरना, भोजनगृह में सुमधुर भोजन करना, सुखासन पर बैठकर मंगलगीतों के साथ दिन बिताना, मणि और सुवर्णदीप से प्रकाशित गर्भगृह में जाकर महार्घ शय्या पर मुदित मन से विषयोपभोग करना आदि बातों का कथाकार ने प्राय: सामान्य रूप से उल्लेख किया है। उस युग में उपाध्यायों द्वारा 'तुम दोनों का मिलन अजर (जरा-रहित) हो', यह कहकर वर-वधू को बधाई देने की भी प्रथा थी । वसुदेव को भी इसी प्रकार बधाई मिली थीं : " बद्धाविओ मि उवज्झाएण 'अजरं संगयं भवउ' त्ति भणतेण (बन्धुमतीलम्भ: पृ. २८० ) । बहू जब घर (ससुराल में आती थी, तब उसे आशीर्वाद के अक्षत देने के लिए, सपरिवार राजा, ब्राह्मणों और नागरिकों को आमन्त्रित करने के लिए उनके पास वसन- आभूषण से सज्जित पुरुषों को भेजा जाता था। प्रद्युम्न ने अपनी पत्नी वैदर्भी से जब विवाह किया था, तब उसने स्वयं वैदर्भी को आशीर्वाद के अक्षत दिलवाने के निमित्त राजा, ब्राह्मणों और नागरिकों को आमन्त्रित किया था (पीठिका पृ. १०० ) ।
संघदासगणीने विवाह के लिए अधिकतर 'पाणिग्रहण' या फिर 'कल्याण' शब्द का प्रयोग किया है। कन्याओं को धार्मिक धरोहर ('धम्मनिक्खेवो; गन्धर्वदत्तालम्भ: पृ. १५४) माना जाता था । उन्होंने इस बात की भी सूचना दी है कि इस युग में विवाह के सम्बन्ध में वर-वधू के लिए उत्तम भविष्यवाणी करनेवाले ज्योतिषियों को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था । विवाह करानेवाले पुरोहित का भी अपना ही ठाट-बाट होता था । वसुदेव का पद्मा से जिस समय विवाह हो रहा था, उस समय शान्ति नाम का पुरोहित आया था। उसका शरीर श्वेत कर्णिकार के केसर के समान गौरवर्ण था; श्वेतवस्त्र का उत्तरासंग उसने धारण किया था और माथे पर दूर्वांकुर और मालती का पुष्प लगा रखा था। वह शरीर से पुष्ट और गम्भीर - मधुरभाषी था । उसने आते ही जयकार और आशीर्वाद से वसुदेव का वर्द्धापन किया था। फिर, उन्हें वह सुन्दर ढंग से बनी मंगलवेदी से युक्त चातुरन्त (लग्नमण्डप) में ले गया था (पद्मालम्भ : पृ. २०५) ।
कथाकार ने स्वयंवर - मण्डप की सजावट का बड़ा वैभवशाली बर्णन किया है। स्वयंवर में राजा और राजकुमार बड़े ठाट से ('महया इड्डीए) जुटते थे । राजा त्रिपृष्ठ के पोतनपुर के राजपथ